Wednesday, August 18, 2021

हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम

हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम

जब हम आस्था, वीरता और निष्ठा के उच्च शिखर की ओर देखते हैं तो हमारी दृष्टि अब्बास जैसे महान एवं अद्वितीय व्यक्ति पर पड़ती है

 

जो हज़रत अली की संतान हैं। वे उच्चता, उदारता और परिपूर्णता में इतिहास में दमकते हुए व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बहुत से लोगों ने धार्मिक आस्था, वीरता और वास्तविकता की खोज उनसे ही सीखी है। वर्तमान पीढ़ी उन प्रयासों की ऋणी है जिनके अग्रदूत अबुलफ़ज़लिल अब्बास जैसा व्यक्तित्व है।

 

उस बलिदान और साहस की घटना को घटे हुए अब शताब्दियां व्यतीत हो चुकी हैं किंतु इतिहास अब भी अब्बास इब्ने अली की विशेषताओं से सुसज्जित है। यही कारण है कि शताब्दियों का समय व्यतीत हो जाने के बावजूद वास्तविक्ता की खोज में लगी पीढ़ियों के सामने अब भी उनका व्यक्तित्व दमक रहा है।

यदि इतिहास के महापुरूषों में हज़रत अब्बास का उल्लेख हम पाते हैं तो वह इसलिए है कि उन्होंने मानव पीढ़ियों के सामने महानता का जगमगाता दीप प्रज्वलित किया और सबको मानवता तथा सम्मान का पाठ दिया। बहादुरी, रणकौशल, उपासना, ईश्वर की प्रार्थना हेतु रात्रिजागरण और ज्ञान आदि जैसी विशेषताओं में हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास का व्यक्तित्व, जाना-पहचाना है।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शहादत के पश्चात इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जो दूसरी पत्नी ग्रहण कीं उनका नाम फ़ातेमा केलाबिया था। वे सदगुणों की स्वामी थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से विशेष निष्ठा रखती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के प्रति उनका अथाह प्रेम पवित्र क़ुरआन की इस आयत के परिदृष्य में था कि पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी का बदला, उनके परिजनों के साथ मित्रता और निष्ठा है। सूरए शूरा की आयत संख्या २३ में ईश्वर कहता है, "कह दो कि अपने परिजनों से प्रेम के अतिरिक्त मैं तुमसे अपनी पैग़म्बरी का कोई बदला नहीं चाहता। (सूरए शूरा-२३) उन्होंने इमाम हसन, इमाम हुसैन, हज़रत ज़ैनब और उम्मे कुल्सूम जैसी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की निशानियों के साथ कृपालू माता की भूमिका निभाई और स्वयं को उनकी सेविका समझा। इसके मुक़ाबले में अहलेबैत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के निकट इस महान महिला को विशेष सम्मान प्राप्त था। हज़रत ज़ैनब उनके घर जाया करती थीं और उनके दुखों में वे उनकी सहभागी थीं।

हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास एक ऐसी ही वीर और कर्तव्यों को पहचानने वाली माता के पुत्र थे। चार पुत्रों की मां होने के कारण फ़ातेमा केलाबिया को "उम्मुलबनीन" अर्थात पुत्रों की मां के नाम की उपाधि दी गई थी। उम्मुलबनीन के पहले पुत्र हज़रत अब्बास का जन्म ४ शाबान वर्ष २६ हिजरी क़मरी को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। उनके जन्म ने हज़रत अली के घर को आशा के प्रकाश से जगमगा दिया था। हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम अतयंत सुन्दर और वैभवशाली थे। यही कारण है कि अपने सुन्दर व्यक्तित्व के दृष्टिगत उन्हें "क़मरे बनी हाशिम" अर्थात बनीहाशिम के चन्द्रमा की उपाधि दी गई।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसे पिता और उम्मुल बनीन जैसी माता के कारण हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास उच्चकुल के स्वामी थे और वे हज़रत अली की विचारधारा के सोते से तृप्त हुए थे। अबुल फ़ज़लिल अब्बास के आत्मीय एवं वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विशेष भूमिका रही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्र अब्बास को कृषि, शरीर एवं आत्मा को सुदृढ़ बनाने, तीर अंदाज़ी, और तलवार चलाने जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया था। यही कारण है कि हज़रत अब्बास कभी कृषि कार्य में व्यस्त रहते तो कभी लोगों के लिए इस्लामी शिक्षाओं का वर्णन करते। वे हर स्थिति में अपने पिता की भांति निर्धनों तथा वंचितों की सहायता किया करते थे। भाग्य ने भी उनके लिए निष्ठा, सच्चाई और पवित्रता की सुगंध से मिश्रित भविष्य लिखा था।

हज़रत अब्बास की विशेषताओं में से एक, शिष्टाचार का ध्यान रखना और विनम्रता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र से कहते हैं कि हे मेरे प्रिय बेटे, शिष्टाचार बुद्धि के विकास, हृदय की जागरूकता और विशेषताओं एवं मूल्यों का शुभआरंभ है। वे एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि शिष्टाचार से बढ़कर कोई भी मीरास अर्थात पारिवारिक धरोहर नहीं होती।

इस विशेषता मे हज़रत अबुलफ़ज़ल सबसे आगे और प्रमुख थे। अपने पिता की शहादत के पश्चात उन्होंने अपने भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता में अपनी पूरी क्षमता लगा दी। किसी भी काम में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से आगे नहीं बढ़े और कभी भी शिष्टाचार एवं सम्मान के मार्ग से अलग नहीं हुए।

विभिन्न चरणों में हज़रत अब्बास की वीरता ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साहस और गौरव को प्रतिबिंबित किया। किशोर अवस्था से ही हज़रत अब्बास कठिन परिस्थितियों में अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ उपस्थित रहे और उन्होंने इस्लाम की रक्षा की। करबला की त्रासदी में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेना के सेनापति थे और युद्ध में अग्रिम पंक्ति पर मौजूद रहे। आशूरा अर्थात दस मुहर्रम के दिन हज़रत अब्बास ने अपने भाइयों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज वह दिन है जब हमें स्वर्ग का चयन करना है और अपने प्राणों को अपने सरदार व इमाम पर न्योछावर करना है। मेरे भाइयों, एसा न सोचो कि हुसैन हमारे भाई हैं और हम एक पिता की संतान हैं। नहीं एसा नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हमारे पथप्रदर्शक और धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। वे हज़रत फ़ातेमा के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हैं। जिस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथी उमवी शासक यज़ीद की सेना के परिवेष्टन में आ गए तो हज़रत अब्बास सात मुहर्रम वर्ष ६१ हिजरी क़मरी को यज़ीद के सैनिकों के घेराव को तोड़ते हुए इमाम हुसैन के प्यासे साथियों के लिए फुरात से पानी लाए।

तीन दिनों के पश्चात आशूर के दिन जब इमाम हुसैन के साथियों पर यज़ीद के सैनिकों का घेरा तंग हो गया तो इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों तथा साथियों के लिए पानी लेने के उद्देश्य से हज़रत अब्बास बहुत ही साहस के साथ फुरात तक पहुंचे। इस दौरान उन्होंने उच्चस्तरीय रणकौशल का प्रदर्शन किया। हालांकि वे स्वयं भी बहुत भूखे और प्यासे थे किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्यासे बच्चों और साथियों की प्यास को याद करते हुए उन्होंने फुरात का ठंडा तथा शीतल जल पीना पसंद नहीं किया। फुरात से वापसी पर यज़ीद के कायर सैनिकों के हाथों पहले हज़रत अब्बास का एक बाज़ू काट लिया गया जिसके पश्चात उनका दूसरा बाजू भी कट गया और अंततः वे शहीद कर दिये गए।

जिस समय हज़रत अब्बास घोड़े से ज़मीन पर आए, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बहुत ही बोझिल और दुखी मन से उनकी ओर गए, उन्होंने हज़रत अब्बास के सिर को अपने दामन में रखते हुए कहा, हे मेरे भाई इस प्रकार के संपूर्ण जेहाद के लिए ईश्वर तुम्हें बहुत अच्छा बदला दे। इसी संबंध में हज़रत अब्बास की विशेषताओं को सुन्दर वाक्यों और मनमोहक भावार्थ में व्यक्त करते हुए इमाम जाफ़रे सादिक़ ने एसे वाक्य कहे हैं जो ईश्वरीय दूतों की आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में हज़रत अब्बास के बलिदान और उनकी महान आत्मा के परिचायक हैं। वे कहते हैं कि मैं गवाही देता हूं कि आपने अच्छाइयों के प्रचार व प्रसार तथा बुराइयों को रोकने के दायित्व का उत्तम ढंग से निर्वाह किया और इस मार्ग में अपने भरसक प्रयास किये। मैं गवाही देता हूं कि आपने कमज़ोरी, आलस्य, भय या शंका को मन में स्थान नहीं दिया। आपने जिस मार्ग का चयन किया वह पूरी दूरदर्शिता से किया। आपने सच्चों का साथ दिया और पैग़म्बरों का अनुसरण किया।

Monday, August 16, 2021

टीम 9 की बैठक में सीएम योगी का निर्देश, 06 से 08वीं तक की स्कूल 23 अगस्त से और 01 से 05 तक के स्कूल 01 सितंबर से खोलने के निर्देश

लखनऊ
टीम 9 की बैठक में सीएम योगी का निर्देश ।

  • यूपी में 6-8वी तक के स्कूल 23 अगस्त से और 1 से 5वी तक के स्कूल 1 सितंबर से खुलेंगे।
  • 9वीं और उससे ऊपर की पढ़ाई आज से शुरू हो गई है।
  • सीएम ने अपने निर्देश में कहा है कि रक्षाबंधन के बाद 23 अगस्त से 06वीं से 08वीं तक तथा 01 सितंबर से कक्षा 01 से 05वीं तक के विद्यालयों में पठन-पाठन प्रारंभ करने पर विचार किया जाए।






Sunday, August 15, 2021

जानिये उन 4 मुस्लिम महिलाओं के बारे में जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष किया

 74 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर  आइए हम इन मुस्लिम महिलाओं को याद करें जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपनी ताकत, उत्साह और दृढ़ संकल्प साबित किया। इन महिलाओं ने समाज में उन मुस्लिम महिलाओं की रूढ़िवादिता को तोड़ा  जिन्हें केवल बुरखा में लिपटा  माना जाता है और उन्हें कभी घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में भाग लिया और विजयी हुए।

बेगम हज़रत महल (1830-1879)

बेगम हज़रत महल 1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ से विद्रोह का नेतृत्व करने वाली महान् क्रान्तिकारी महिला थी।

उनका असली नाम मुहम्मदी खानुम था। उनका जन्म 1820 ई• में अवध रियासत के फैज़ाबाद में हुआ था।वह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थी। अंग्रेज अवध पर अपना अधिकार करना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा अवध के नवाब वाजिद अली शाह को नज़रबंद करके कलकत्ता भेज दिया। तब बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत की बागडोर अपने हाथों में लेली। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कद्र को राजगद्दी पर बैठाकर अंग्रेज़ी सेना का स्वयं मुकाबला किया।

जानिये उन 4 मुस्लिम महिलाओं के बारे में जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष किया 1

उनमें संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के ज़मीदार, किसान, सैनिकों ने उनके नेतृत्व में अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। आलमबाग की लड़ाई में उन्होंने व उनके साथियों ने अंग्रेज़ी सेना का डटकर मुकाबला किया परन्तु पराजय के बाद उन्हें भागकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी।

नेपाल के प्रधानमंत्री महाराजा जंग बहादुर राणा द्वारा उन्हें शरण प्रदान की गई। उसके बाद बेगम हज़रत महल ने अपना पूरा जीवन नेपाल में ही व्यतीत किया और वहीं पर 7 अप्रैल 1879 ई• में उनका निधन हो गया और वहीं काठमांडू की जामा मस्जिद के मैदान में दफनाया गया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनके महत्वपूर्ण योगदान को सम्मानित करते हुए 15 अगस्त 1962 में लखनऊ हज़रतगंज के विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर उनके नाम पर रखा गया। 10 मार्च 1984 को भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया।

अबदी बानो बेगम (1852-1924)

बी अम्मा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक साहसी, राष्ट्रवादी महिला व स्वतंत्रता सेनानी थी। उनका असली नाम ” आबदी बानो बेगम ” था। बी अम्मा का जन्म 1850 ई• में उत्तर प्रदेश राज्य के ज़िला रामपुर में हुआ था। उनका विवाह रामपुर के अब्दुल अली खान से हुआ। लेकिन वह कम उम्र में विधवा हो गई। फिर भी उन्होंने कड़ी मेहनत करके अपने बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षित किया।

उनके दो लड़के मौलाना शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली जौहर थे। जो अली ब्रादर्स के नाम से मशहूर हुए।बानो बेगम ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

1917 में जब उनके दोनों बेटों को जेल में डाला गया तो श्रीमती एनी बेसेंट के साथ आन्दोलन पर बैठ गई और अपनी तरफ से एक बड़ी मुक्ति सभा को संबोधित किया और अंग्रेजों के खिलाफ अभूतपूर्व भाषण दिया।

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1919 में उनके दोनों बेटों ने खिलाफत आंदोलन का प्रमुख रूप से नेतृत्व किया और उन्होंने भी इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1920 में गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने ख़िलाफत आन्दोलन और असहयोग आंदोलन में धन उगाहने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बी अम्मा अक्सर बसन्ती देवी, सरला देवी, एनीबेसेन्ट, सरोजनी नायडू जैसी महिलाओं के साथ महिला सभाओ को संबोधित करती थी। वह हिन्दू मुस्लिम एकता की प्रतीक थी। मगर अफसोस बी अम्मा स्वतंत्र भारत न देख सकी और 13 नवंबर 1924 को उनका निधन हो गया

बीबी अमातस सलाम (1907-1985)
बीबी अमातस सलाम, जो दृढ़ता से मानती थी कि केवल गांधीवादी तरीकों के जरिए,अंग्रेजों की गुलामी से आजादी हासिल की जा सकती है, वह 1907 में राजपूताना परिवार में पंजाब के पटियाला में पैदा हुई थी। उनके पिता कर्नल अब्दुल हमीद और उनकी माँ अमातुर रहमान थीं। अमातुस सलाम छह बड़े भाइयों की छोटी बहन थी। उसका स्वास्थ्य बचपन से ही बहुत नाजुक था। वह अपने सबसे बड़े भाई, स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद अब्दुर राशिद खान से प्रेरित थी। अपने भाई के नक्शेकदम पर चलते हुए, उसने देश की जनता की सेवा करने का फैसला किया। अमातुस सलाम ने खादी आंदोलन में भाग लिया और अपने भाई के साथ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बैठकों में भाग लिया। वह महात्मा गांधी और सेवाग्राम आश्रम के गैर हिंसा सिद्धांत के प्रति आकर्षित थी। उन्होंने सेवाग्राम आश्रम में शामिल होने का फैसला किया, और 1931 में वहां गईं। उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया और आश्रम के सख्त सिद्धांतों का पालन किया। अपनी निस्वार्थ सेवा के साथ वह गांधी दंपति के बहुत करीब हो गईं। गाँधी अमातुस सलाम को अपनी प्यारी बेटी मानते थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, वह गांधी की अनुमति के साथ अपनी बीमारी के बावजूद 1932 में अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं।

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जेल से रिहा होने के बाद, वह सेवाग्राम पहुंची और गांधी की निजी सहायक के रूप में दायित्व को संभाल लिया। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामंजस्य, हरिजनों और महिलाओं का कल्याण उनकी जीवन महत्वाकांक्षाएं थीं। जब सांप्रदायिक दंगे भड़क गए, तो उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमांत  सिंध और नौखली क्षेत्रों का दौरा गांधी के राजदूत के रूप में किया।

उन क्षेत्रों की स्थिति को सामान्य करने के लिए 20 दिनों तक सत्याग्रह किया। आजादी के बाद, उन्होंने खुद को सार्वजनिक सेवा में बदल दिया। उन्होंने राष्ट्रीय एकीकरण और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए ‘हिंदुस्तान’ नामक एक उर्दू पत्रिका प्रकाशित की। 1961 में जब खान अब्दुल गफ्फार खान भारत दौरे पर आए, तो उन्होंने उनके निजी सहायक के रूप में उनके साथ यात्रा की।

हजारा बेगम (1910-2003)
हजारा बेगम जिन्होंने राष्ट्र को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और देश के मेहनतकश जनता के कल्याण के लिए काम किया, उनका जन्म 22 दिसंबर, 1910 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुआ था। उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान के बारे में पता चला, जो अपने पिता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे, जो एक पुलिस अधिकारी थे। अपनी शादी की विफलता के बाद वह अपनी उच्च शिक्षा का के लिए लंदन चली गई, जहां वह ब्रिटिश विरोधी ताकतों से परिचित हो गई। इसने उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ देश को आजाद कराने के लिए लड़ने का फैसला किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के गुस्से का सामना करना पड़ा क्योंकि वह कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उनके कृत्यों की आलोचना कर रही थी।

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वह भारत लौट आईं और 1935 में लखनऊ के करामत हुसैन महिला कॉलेज में व्याख्याता के रूप में शामिल हुईं। उन्होंने अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के गठन में प्रसिद्ध कवि सज्जाद ज़हीर के साथ भी काम किया। उन्होंने 1935 में एक राष्ट्रवादी नेता डॉ। ज़ैनुल आबेदीन अहमद से शादी की और उसी वर्ष दोनों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सदस्यता ले ली। चूंकि ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए पुलिस उनके पीछे थी इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और खुद को पूरी तरह से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित कर दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में भाग लेते हुए, हजारा बेगम ने पुलिस की जानकारी के बिना कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी अभियान चलाया। उन्होंने उन दिनों चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लिया, और इसके परिणामस्वरूप कई कांग्रेसी नेता निर्वाचित हुए। वह 1937 में आंध्र प्रदेश के कोथापट्टनम में एक गुप्त राजनीतिक कार्यशाला में शामिल हुईं।

वह मेहनतकश लोगों और महिलाओं के हलकों में ‘हज़ारा आपा’ के रूप में बहुत लोकप्रिय हुईं। सोवियत संघ ने 1960 में लेनिन की जन्म शताब्दी की पूर्व संध्या पर लोगों के लिए उनके काम को मान्यता देने के लिए उन्हें ‘सुप्रीम सोवियत जुबली अवार्ड’ से सम्मानित किया। हजारा बेगम, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगाया, ने 20 जनवरी, 2003 को अंतिम सांस ली।

Saturday, August 14, 2021

हुसैनी ब्राह्मण

शिया मौलाना जलाल हैदर नकवी बताते हैं कि कर्बला की जंग यजीद के जुल्म के सितम के खिलाफ इमाम हुसैन ने लड़ी थी. इस जंग में मुसलमानों का बड़ा तबका यजीद के साथ था, जो हक पर थे वही हुसैन के साथ थे. ऐसे में इमाम हुसैन का साथ देने भारत के ब्राह्मण गए.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हिंदू और मुसलमान दोनों में होते हैं. मौजूदा समय में हुसैनी ब्राह्मण अरब, कश्मीर, सिंध, पाकिस्तान,  पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं. ये लोग 10 मुहर्रम यानी आज के दिन हुसैन की शहादत के गम में मातम और मजलिस करते हैं.

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यहां तक कि इस समुदाय से कई प्रसिद्ध हस्तियों का नाम भी जोड़ा जाता है. कहते हैं कि फिल्म अभिनेता और सांसद रहे स्वर्गीय सुनील दत्त हुसैनी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे. उनके अलावा ऊर्दू लेखक कश्मीरी लाल जाकिर, साबिर दत्त और नंदकिशोर विक्रम हुसैनी ब्राह्मण समुदाय से जुड़े नाम हैं.

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प्रोफेसर असगर नकवी बताते हैं कि पैगंबर मोहम्मद के दौर की बात है, जब सुनील दत्त के पूर्वजों के संतान नहीं हो रही थी. उस समय वह अल्लाह के रसूल पैगंबर मोहम्मद के पास पहुंचें. दत्त परिवार ने अपनी बात रखते हुए कहा कि रसूल हमारे परिवार में औलाद नहीं हो रही है. ये सुनकर नबी ने इमाम हुसैन से कहा कि आप इनके लिए दुआ करो. उस वक्त इमाम हुसैन बच्चे थे और वे खेल रहे थे. हुसैन ने अपने हाथ उठाकर खुदा से उनके लिए दुआ की. इमाम हुसैन की दुआ के बाद दत्त परिवार में बेटे का जन्म हुआ, तभी से ये हुसैनी ब्राह्मण के नाम से पहचाने जाने लगे.

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कर्बला की जंग में इमाम हुसैन का साथ देने गए हुसैनी ब्राह्मण भी शहीद हो गए थे. ये वही हुसैनी ब्राह्मण थे, जो हुसैन की दुआ के बाद जन्मे थे.

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कहा जाता है कि कर्बला की जंग में इमाम हुसैन के साथ उनके परिवार और 72 साथियों के अलावा दत्त परिवार के 7 बेटे भी शहीद हुए थे.

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हिंदुस्तान के सभी धर्मों में हज़रत इमाम हुसैन से अकीदत और प्यार की परंपरा रही है. कर्बला की जंग ने उदारवादी मानव समाज को हर दौर में प्रभावित किया है. यही वजह है कि भारतीय समाज में शहीद मानवता हज़रत इमाम हुसैन की शहादत का शोक न केवल मुस्लिम समाज के लोग मनाते हैं, बल्कि हिंदू समाज में भी इंसानियत की उस महान शख्सियत की शहादत का शोक मनाया जाता है.

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कहा जाता है कि पैगंबर मोहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन इस्लामिक इतिहास के पहले और शायद आखिरी ऐसे बच्चे हैं, जिनके जन्म पर उनका परिवार रोया था. यहां तक  की रसूल खुद रोए थे, जब जिब्राईल अमीन ने इमाम हुसैन के जन्म पर बधाई के साथ यह बताया कि उस बच्चे को कर्बला के मैदान में तीन दिन का भूखा प्यासा रखा जाएगा. साथ ही उनके 72 साथियों के साथ उन्हें शहीद किया जाएगा और इस परिवार की औरतों और बच्चों को कैद कर लिया जाएगा.

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श्रीनगर के इमामबाड़े में हज़रत इमाम हुसैन मुंए मुबारक मौजूद हैं, जो काबुल से लाया गया है. हुसैनी ब्राह्मण उसे 100 साल पहले काबुल से लाए थे.

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असगर नकवी कहते हैं कि हुसैनी ब्राह्मण दरदना भट्टाचार्य के वंशज थे. उनमें आत्मसम्मान और बहादुरी कूट-कूट कर भरी हुई थी. कर्बला में हुसैन की शहादत की खबर सुनी तो हुसैनी ब्राह्मण 700 ई. में इराक पहुंचे और इमाम हुसैन का बदला लेकर लौटे.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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श्रीनगर के इमामबाड़े में हज़रत इमाम हुसैन मुंए मुबारक मौजूद हैं, जो काबुल से लाया गया है. हुसैनी ब्राह्मण उसे 100 साल पहले काबुल से लाए थे.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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प्रेमचंद का प्रसिद्ध नाटक 'कर्बला' सही और गलत से पर्दा उठाता है. अवध का मुहर्रम हिन्दू–मुस्लिम एकता गंगा-जमुनी तहजीब की एक खूबसूरत और पाकीजा मिसाल पेश करता है.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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सैय्यद अतहर हुसैन बताते हैं कि लखनऊ चौक में तो लगभग हर हिंदू घर में पहले ताजिया रखा जाता था. अब भी ज्यादातर पुराने हिंदू घरों में ताजिएदारी होती है और मिन्नती ताजिएदारी का रिवाज भी है.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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कहा जाता है कि सभी हुसैनी ब्राह्मण लोगों की गर्दन पर निशान होते हैं. दरअसल, उनका मानना है कि ये निशान इमाम हुसैन और ब्राह्मण की शहादत के प्रतीक हैं.

Thursday, August 12, 2021

दुरुद शरीफ


दुरुद शरीफ Home दुरुद शरीफ
अलहम्दु लिल्लाहि अला कुल्लि हालिवँ व सल्लालाहु अला अहलि बैतिही

जो शख्स छींक आने पर यह दुरुद पढेगा तो मिन जानिब अल्लाह एक परिंदा पैदा करेगा जो अर्श के निचे फड़ फड़आएगा और अल्लाह से अर्ज़ करेगा की इस दुरूद शरीफ के पड़ने वाले को बक्श दे

अल्ला हुम्मा सल्ली अला मुह्म्मदिव्व अला आले मुहम्मदिन कमा सल्लयता अला इब्राहीमा व अला आले इब्राहीमा इन्नका हमीदुम्मजीद० अला हुम्मा बारीक अला मुह्म्मदिव्व अला आले मुहम्मदिन कामा बारकता अला इब्राहीमा व अला आले इब्राहिमा इन्नका हमीदुम-मजीद०

हदीसे मुबारिका : जो मुझपर दुरुद पढना भूल गया वह जन्नत की राह भूल गया

अल्लाहुम सल्लि अला मुहम्मदिन फिल अर्वाहि व सल्लि अला ज स दि मुहम्मदिन फिल अज सादि व सल्लि अला कब्रि मुहम्मदिन फिल कुबूर

जो शख्स यह दुरूद शरीफ पढ़ेगा उसको ख्वाब में हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जियारत नसीब होगी

अल्लाहुम सल्लि अला मुहम्मिद कुल्ल्मा ज़ क र हुज़ जाकिरू न कुल्लमा ग़ फ़ ल अन ज़िक रिहिल ग़ाफिलून

इमाम इस्माइल बिन इब्राहीम मुज्नी ने हजरत इमाम शाफ़अी को ख्वाब में देखा और पूछा अल्लाह पाक ने आपके साथ क्या मुआमला फरमाया ? तो उन्होंने जवाब दिया इस दुरूद शरीफ की बरकत से अल्लाह पाक ने मुझे बख्श दिया और इज्जत व एहितराम से जन्नत में ले जाने का हुक्म दिया

अल्लाहुम सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व आलिही कमा ला निहा य त लि कमालि क व अ द द कमालिही दफ़ए निसयान के लिए यह दुरुद शरीफ मग़रिब और इशा के दरमियाँ जितना पढ़ सके पढ़े

इस दुरूद को पढने से जाईज़ मुराद पूरी होती है

अल्लाहुम सल्लि अला सय्यिदिना मुहम्मदिन नूरिल अनवारि व सिर्रिल असरारि व सय्यिदिल अबरारि

हज़रत अली रदियल्लाहु अन्हु से हदीस शरीफ नकल है कि तुम्हारा मुझ पर दुरुद पढना तुम्हारी दुआओ की हिफाजत करने वाला है और तुम्हारे रब की रज़ा का सबब है

अल्लाहुम्म रब्ब हाज़िहिद दअ वतित ताम मति वस्सला तिल का इ मति सल्लि अला मुहम्म्दिवँ वर्दा अन्हु रिदलला स ख़ त बअ दहु

जो शख्श अज़ान के वक़्त यह दुरूद शरीफ पढ़ेगा अल्लाह उसकी दुआ कुबूल फरमाएगा

अल्लाहुम्म सल्लि अलन नबिय्यिय मुहम्मदिन हत्ता ला यब्का मिन सलाति क राय उँव व बारिक अलन नाबीय्य मुहम्मदिन हत्ता ला यब्का मिन बर काति क राय उँव व अर हमिन नाबिय्यीय हत्ता ला य्ब्का मिर रह मति क राय उँव व् सल्लिम अलन नबिय्यिय मुहम्मदिन हत्ता ला य्ब्का मिन सला

हुज़ूर सल्लालाहू अलैही वसल्लम के इरशाद के मुताबिक इस दुरुद शरीफ के पढ़ने वाले का चेहरा पुल सिरात से गुज़रते वक़्त चाँद से ज्यादा चमकदार होगा

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन अफ दला स ल वाति क

इस दुरुद शरीफ के बारे में यह मन्कूल है की यह दस हज़ार 10000 मर्तबा दुरुद शरीफ पढ़ने के बराबर है

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन अब्दी क व अला आलि मुह्म्मदिवँ व बारिक व सल्लिम

जो शख्स इस दुरुद शरीफ को पाबन्दी के साथ पढ़े वह जन्नत के ख़ास फल और मेवे खायेगा

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन कमा अ मर तना अन नुसल्लि य अलैहि व सल्लि अलैहि कमा यम्ब्गी अँय यु सल्ला अलैहि

हजरत अनस रदिअललाहु अन्ह ने प्यारे आक़ा सल्लालाहु अलैहि वसल्लम से एसा दुरुद शरीफ पूछा जिसको कामिल दुरुद शरीफ कहा जा सके तो आप ने ये दुरुद तलकीन फरमाई

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन कमा तुहिब्बु व तरदा लहु

एक रिवायत में कि जो शख्स यह दुरुद शरीफ एक मर्तबा पढता है 70 फ़रिश्ते एक हज़ार दिन तक उसके नमाए अमाल में नेकिया लिखते रहते है

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन निन नबिय्यिय उम्मिय्यित ताहिरीज ज़किय्यी सलातन तु हिल्लु बिहिल ओ क दु व तु फक्कु बि हल कु र बु

यह दुरुद शरीफ बार बार पढ़ने से अल्लाह परेशानियों को दूर फरमा देता है

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन निन नबीय्यिल उम्मिय्य्य अलेहिस सलाम

जुमे के दिन एक हज़ार मर्तबा यह दुरुद शरीफ पढ़ने वाले को मरने से पहले जन्नत में उसका ठिकाना दिखा दिया जाता है

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन सलातन तकू न ल क रिदवँ व लि हक्कीही अदा अन

जो शख्स नमाज़े फज्र के बाद और नमाज़े मग़रिब के बाद 33 – 33 बार यह दूरूद पढ़ेगा तो उस शख्स की कब्र और रोज़ए अक़दस के दरमियान एक खिड़की खोल दी जाएगी और रोजए अक़दस की जियारत उसको नसीब होगी

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदीन कमा हु व् अह लुहू व् मुसतहिक़ कुहू

जिस शख्स को कोई दुशवारी पेश होते वह तन्हाई में बा वजू यह दुरुद 1 एक मर्तबा पढ़े और 1000 एक हज़ार मर्तबा कलमाए तय्यिबा पढकर दिल से दुआ करे इंशाल्लाह दुशवारी दूर होगी

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्म्दिम बि अ द दि कुल्लि दा इवँ व दवा इवँ व बारिक व सल्लिम

हर दर्द और बीमारी दूर होने के लिए अव्वल व् आखिर दुरूद शरीफ पढ़े और दरमियान में बिस्मिल्लाह के साथ सुरः फातेहा पढ़कर दम करे

अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व आलिही व असहा बिही बि अ द दि मा फी जमीअिल क़ुरआनि हरफन हरफवँ व बि अ द दि कुल्लि हरफिन आल्फन अल्फ़ा

तीन 3 मर्तबा सुबह और शाम यह दुरुद शरीफ पढ़ने से ज़बरदस्त कामयाबी मिलती है

अल्लाहुम्म सल्लि अला सय्यिदना व मौलाना मुहम्म दिन अ द द मा फी इल्मिल्लाहि सलातन दा ए म तम तम बि दवामि मुल्किल्लाह

शैखुद दलाइल ने हज़रत जलालुद्दीन सियूती से रिवायत की इस दुरूद शरीफ को एक बार पढ़ने से छ लाख ६००००० दुरूद शरीफ पढ़ने का सवाब हासिल होता

अल्लाहुम्म सल्लि अला सय्यिदल आलमी न हबीबि क मुहम्मदिवँ व आलिही सलातन अन त लहा अहलुँ व् बारिक व् सल्लिम कज़ा लिक

जो शख्स सुबह व शाम सात सात बार इस दुरूद शरीफ को पाबंदी से पढ़े तो इसकी बरकत से अल्लाह तआला उस की औलाद को बा इज्जत रखेगा

अल्लाहुम्म सल्लि अला सय्यिदिना मुहम्मदि निल लज़ी म ला त क़ल बहू मिन जलालि क व अय नयहि मिन जमालि क फ़ अस ब ह फ़ रि हम मसरूरम मु अय्ये दम मंसूरा

शेख अबू अब्दुल्लाह नोमान रहमतुल्लाह अलैहि को ख्वाब में सो 100 मर्तबा रसूले करीम सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की जियारत हुई आखिरी मर्तबा में उन्होंने हुज़ूर से अफजल दुरुद शरीफ पुछा तो आप सल्लललाहु अलैहि वसल्लम ने यह दुरुद शरीफ तअलीम फरमाई

अल्लाहुम्म सल्लि व सल्लिम अला सय्यिदिना मुहम्म्दिवँ व अला आलि सय्यिदिना मुहम्मदिन फी कुल्लि लम हतिवँ व अला आलि सय्यिदिना मुहम्मदिन फी कुल्लि लम हतिवँ व नफ्सीम बि अ द दि कुल्लि मअलू मिल ल क

दुआ में जब तक नबिए अकरम सल्लालाहू अलेहि वसल्लम पर दुरुद न भेजेंगे तब तक दुआ ज़मीन व आसमान के दरमियान लटकी रहेगी

अल्लाहुम्म सल्लि व सल्लिम व बारिक अला सय्यिदिना मुहम्मदिन कद दाकत ही ल ती अदरिकनी या रसूलल्लाह

हुज़ूर सल्लललाहु अलैहि वसल्लम फरमाते है जो सख्श मेरे नाम के साथ सल्लललाहू अलैहि वसल्लम लिखता है जब तक उस किताब में मेरा नाम रहेगा फ़रिश्ते उसके लिए मगफिरत की दुआ करते रहेंगे

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मददिन अब्दी क व रसूलि कन नबीय्यिल उम्मीय्यिय

हुज़ूर सल्ललाहु अलेही वसल्लम के इरशाद के मुताबिक़ जो शख्स 80 मर्तबा यह दुरुद पढ़े अल्लाह उसके अस्सी साल के गुनाह माफ़ फरमा देगा

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदि निन नबीय्यि व अला आलिही व सल्लिम तस्लीमा

जुमे के दिन जहा नमाज़ असर पढ़ी हो उसी जगह उठने से पहले अस्सी 80 मर्तबा यह दुरुद शरीफ पढ़ने से अस्सी साल के गुनाह मुआफ होते है और अस्सी साल की इबादत का सवाब मिलता है

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदि निन नबीय्यि व अला आलिही व सल्लिम तस्लीमा

जुमे के दिन जहा नमाज़ असर पढ़ी हो उसी जगह उठने से पहले अस्सी 80 मर्तबा यह दुरुद शरीफ पढ़ने से अस्सी साल के गुनाह मुआफ होते है और अस्सी साल की इबादत का सवाब मिलता है

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन

जुहर की नमाज़ के बाद यह दुरुद शरीफ 100 सौ मर्तबा पढ़ने से तीन बाते हासिल होगी • कभी मकरूज़ ना होगा • अगर क़र्ज़ होगा तो अदा हो जायेगा

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन अब्दी क व रसुलि क व सल्लि अलल मुअमिनी न व मुअमिना ति वल मुस्लिमी न वल मुस्लिमात

जो शख्स अपनी माल और दौलत में इजाफा चाहता है वो इस दुरूद को रोजाना पढ़े

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन फी अव्वलि क्लामिना , अल्लाहुम्म सल्लि अला मुम्म्दिन फी औ स ति कलामिना अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन फी आखिरि कलामिना

शेखुल इस्लाम अबू अब्बास ने फ़रमाया जो शख्स दिन रात में तीन तीन मर्तबा यह दुरुद शरीफ पढ़े वह गोया रात व दिन के तमाम औकात में दुरुद भेजता रहा

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिम बि अ द दि कुल्लि ज़िक रिही अल फ़ अल्फ़ि मर रतिन

इस दुरूद शरीफ का पढना हुज़ूरे अकदस सल्ललाहू अलैहि व सल्लम पर सारे दुरुद भेजने के बराबर है

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व अन ज़िल हुल मक़ अ दल मु करे ब अिन द क यौमल किया मति

जो शख्स यह दुरुद पढ़ेगा उसको रासुल्ल्लालाह सल्लल्लाहु अलैहि व् सल्लम की शफाअत वाजिब होगी

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व अला अबीना इबराही म

हजरत सुफियान बिन उयेयना रहमतुल्लाही अलैह ने फरमाया मेने सत्तर साल से ज्यादा हज़राते ताबर्डन रेहमतउल्लाह को दौराने तवाफ़ यह दुरुद पढ़ते हुए सुना

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व अला आलि मुहम्मदिन

हुजुरे नबिये करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सहाबा से एक मर्तबा तुम ना मुकम्मल दुरुद न पढ़ा करो फिर सहाबाएकिराम के पूछने पर आपने यह दुरुद शरीफ तअलीम फ़रमायी

अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्म्दिवँ व अला आलि मुहम्मदिन सला तन दा इ म तम बि दवा मिक

जो शख्स पचास 50 मर्तबा दिन में और पचास मर्तबा रात में इस दुरुद को पढ़ेगा तो उसका ईमान जाने से महफूज़ रहेगा

अल्लाहुम्मा सल्लि अला सय्यिदिना मुहम्मदिवँ व अला आलिही बि कदरी हुस्नही व जमालिही

हज़रत इमाम हसन बिन अली रादिय्लाहु अन्हुमा का इरशाद है कि जो शख्स किसी मुहीम या परेशानी या मुसीबत में हो तो इस दरूद शरीफ को एक हज़ार 1000 मर्तबा मुहब्बत और शौक से पढ़े और अल्लाह तआला उसकी मुसीबत टाल देगा और उसको उसकी मुराद में कामयाब कर देगा

अल्लाहुम्म्म सल्लि अला मुहम्मिन मिल अस्स्मा वाति व् मिल अल अरदि व मिल अल अर्शिल अज़ीम

इस दुरुद शरीफ के पढ़ने वाले को आसमान व ज़मीन भर कर और अर्शे अज़ीम के बराबर सवाब मिलता है

अल्ल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदि निन नाबिय्यिल उम्मियि व अला आलिहि व सल्लिम

जो शख्स जुमे के दिन एक हज़ार मर्तबा यह दुरुद शरीफ पढ़े उसको ख्वाब में रिसालते आप सल्लालाहु अलैहि वसल्लम की जियारत होगी 5 या 7 जुमे तक पाबंदी से इसको पढ़े

बिस्मिल्लाहि अल्लाहुम्म सल्लि अला मुहम्मदिन

हुज़ूर सल्लालाहु अलैहि वसल्लम जब मस्जिद में जाते या मस्जिद से निकलते तो ये दुरुद पढ़ा करते थे

व सल्लालाहु अ लन न्बिय्यीय मुह्म्मदिवँ व सल्लम

हजरत हसन रादिय्ल्लाहु अन्हु दुआए कुनूत के बाद यह दुरूद शरीफ पढ़ा करते थे

सल्लललाहु अला मुहम्म्दिवँ व जज़ाहु अन्ना मा हु व अहलुहू

जो शख्स यह दुरुद पढ़े तो सवाब लिखने वाले सत्तर फ़रिश्ते एक हज़ार दिन तक इसका सवाब लिखेंगे

सल्लालाहु अलन नाबिय्यिल उम्मीय्यि व आलिही सल्ललाहु अलैहि वसल्लम सलातवँ व सलामन अलै क या रसूलल्लाह

यह दुरूद शरीफ हर नमाज़ खुसुसन नमाज़े जुमा के बाद मदीना मुनव्वरा की तरफ मुह करके सौ 100 मर्तबा पढ़ने से बेशुमार फ़ज़ाएल व बरकात हासिल होते है


रिज़्क़ में बरकत के लिए

जब अपनी दुकान या ऑफिस जाएं. तो सबसे पहले जाते ही सलाम करें,
चाहे कोई वहां हो या न हो, फिर कोई भी दूसरा काम किये बिना,
सीधे उस जगह जाकर बैठ जाएं जहाँ से आप काम करते हैं,
वहां बैठ कर, ३ बार दरूद शरीफ पढ़िए,
१ बार सूरह इखलास (कुल हु वल्लाह) पढ़िए,
फिर ७ बार ये दुआ पढ़िए, (अल्ला हुम्मा सह हिल अलयना अब्वाबा रिज़्क़ीक़ा) रोज़ ऐसा करें.

क्या हुआ था इराक़ की कर्बला में, जो शिया मुस्लिम सवा दो महीने तक खुशियां नहीं मनाते

कहानी उस शख्सियत की, जिसके लिए मुसलमान मानते हैं कि उसने अपना सिर कटाकर इस्लाम को बचा लिया. इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने दीन-ए-इस्लाम को बचाने के लिए एक से बढ़कर एक कुर्बानी दी. इनमें उनके छह माह के बेटे की शहादत भी शामिल हैं और 18 साल के बेटे की भी. नाम है हुसैन (अ.). हां ये वही हुसैन हैं, जिनके लिए मोहम्मद साहब ने कहा था कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से. लेकिन फिर भी यजीद नाम के शख्स ने उनको क़त्ल करा दिया. कहा जाता है कि यज़ीद चाहता था कि हर बात उसकी मानी जाए.



सुन्नी मुसलमान के चौथे खलीफा और शिया मुस्लिम के पहले इमाम हज़रत अली के दूसरे बेटे हैं हुसैन. पहले बेटे का नाम हसन है. पैगंबर मोहम्मद साहब की बेटी फातिमा, हुसैन की मां हैं. यानी पैगंबर मोहम्मद साहब हुसैन के नाना हैं. हुसैन को शिया मुस्लिम अपना तीसरा इमाम मानते हैं. पहले इमाम हजरत अली और दूसरे हसन. इनके बाद हुसैन.

इमाम हुसैन का जन्म इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 3 शाबान, सन 4 हिजरी (यानी 8 जनवरी सन 626) को सऊदी अरब के शहर मदीना में हुआ. शाबान इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी में आठवां महीना होता है जो रमज़ान के महीने से पहले आता है. मुसलमान इसी तारीख के मुताबिक उनका बर्थडे मनाते हैं. 


पैगंबर मोहम्मद साहब ने अल्लाह का पहचनवाया कि वो एक है. और वही इबादत के काबिल है. उन्होंने इस्लाम फैलाना शुरू किया. तब लगभग अरब के सभी कबीलों ने मोहम्मद साहब की बात को मानकर इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया था. मोहम्मद साहब के साथ जुड़े कबीलों की ताकत देखकर उस वक़्त उनके दुश्मन भी उनसे आ मिले. लेकिन उनसे दुश्मनी दिल में पाले रहे.



और ये दुश्मनी मोहम्मद साहब के दुनिया से चले जाने के बाद सामने आने लगी. पहला हमला उनकी बेटी फातिमा ज़हरा पर हुआ, जब उनके घर पर हमला किया गया तो घर का दरवाज़ा टूटकर फातिमा ज़हरा पर गिरा और उसके ज़ख्म ऐसे हुए कि 28 अगस्त सन 632 में वो भी इस दुनिया से रुखसत हो गईं. उस वक़्त हुसैन करीब 6-7 साल के थे.


इनके बाद पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद और फातिमा के शौहर अली को भी दुश्मनों ने क़त्ल कर दिया. रमजान का महीना था. 19वां रोज़ा था. मस्जिद में इब्ने मुल्ज़िम नाम के शख्स ने तलवार से उस वक़्त अली पर हमला किया, जब वो नमाज़ पढ़ा रहे थे. वो तलवार ज़हर में डूबी हुई बताई जाती है, जिससे ऐसा ज़ख्म हुआ कि फिर उनका इलाज नहीं हो सका और 21वें रोज़े को वो भी दुनिया से सिधार गए. शिया मुस्लिम के मुताबिक अली के बाद उनके बड़े बेटे हसन को भी उसी दुश्मनी में जो मोहम्मद साहब के दौर से थी. मार दिया गया. कैद करके रखे गए हसन को ज़हर देकर शहीद किया गया था.



इन सबके दुनिया से चले जाने के बाद दुश्मन हुसैन पर दबाव बनाने लगा कि वह उस वक़्त के जबरन खलीफा बने यज़ीद (जो खुद को मुसलमान कहता था, अल्लाह के वजूद से इंकार करता था.) का हर हुक्म मानें. यज़ीद दबाव बनाने लगा कि हुसैन उसकी बैअत (अधीनता) लें. लेकिन हुसैन अपने बड़े भाई के दुनिया से चले जाने के बाद इमाम थे. यज़ीद चाहता था कि हुसैन अगर उसके साथ आ गए तो पूरा इस्लाम उसकी मुट्ठी में आ जाएगा. और फिर वो जो चाहे वो कर सकेगा. हुसैन ने उसकी अधीनता स्वीकारने से इंकार कर दिया.

किताबों में मिलता है कि 4 मई 680 ई. में इमाम हुसैन ने अपना घर मदीना छोड़ दिया मक्का जाने के लिए. वहां वो हज करना चाहते थे. तब उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में उनको क़त्ल कर सकते हैं. हुसैन नहीं चाहते थे कि काबा जैसी पवित्र जगह पर खून बहे. वो वहां से चले गए. दूसरी वजह ये भी थी कि दुश्मन उनको चुपके से क़त्ल करने का इरादा किये हुए था कि किसी को पता न चले.




मुस्लिम इतिहासकारों के मुताबिक हुसैन चाहते थे कि अगर उनको कत्ल किया जाए तो ज़माना देखे और खुद तय करे कि कौन सही और कौन गलत. वो एक ऐसे जंगल में पहुंचे, जिसका नाम कर्बला था. कर्बला आज इराक़ का एक प्रमुख शहर है. जो इराक़ की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर है. कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है. क्योंकि ये वो जगह है जहां इमाम हुसैन की कब्र है. दुनियाभर से शिया मुस्लिम ही नहीं बाकी मुसलमान भी इस जगह जाते हैं.

बताने को बहुत कुछ है. लेकिन ये मोटा माटी रेखाचित्र इसलिए खींचा ताकि उस बारे में बताया जा सके कि आखिर कर्बला में क्या हुआ था जिसके लिए मुस्लिमों का एक धड़ा (शिया) पूरे सवा दो महीने शोक मनाता है, अपनी हर खुशी का त्याग कर देता है. मातम (सीना पीटना) करता हैं. और हुसैन पर हुए ज़ुल्म को याद करके अश्क बहाता है.


क्या हुआ था कर्बला में?

मुसलमानों के मुताबिक हुसैन कर्बला अपना एक छोटा सा लश्कर लेकर पहुंचे थे, उनके काफिले में औरतें भी थीं. बच्चे भी थे. बूढ़े भी थे. इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 2 मोहर्रम को कर्बला पहुंचे थे. 7 मोहर्रम को उनके लिए यजीद ने पानी बंद कर दिया था. और वो हर हाल में उनसे अपनी स्वाधीनता स्वीकार कराना चाहता था. हुसैन किसी भी तरह उसकी बात मानने को राज़ी नहीं थे.

9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने रोशनी बुझा दी और अपने सभी साथियों से कहा कि मैं किसी के साथियो को अपने साथियो से ज़्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता. कल के दिन हमारा दुश्मनों से मुकाबला है. उधर लाखों की तादाद वाली फ़ौज है. तीर हैं. तलवार हैं और जंग के सभी हथियार हैं. उनसे मुकाबला मतलब जान का बचना बहुत ही मुश्किल है. मैं तुम सब को बखुशी इजाज़त देता हूं कि तुम यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, अंधेरा इसलिए कर दिया है कभी तुम्हारी जाने की हिम्मत न हो. यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं. यजीद की फ़ौज उसे कुछ नहीं कहेगी, जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा. कुछ देर बाद रोशनी फिर से कर दी गई, लेकिन एक भी साथी इमाम हुसैन का साथ छोड़ के नहीं गया.



आज लाउडस्पीकर से अज़ान होती हैं. मुसलमान लाउडस्पीकर को बचाने के लिए आवाजें बुलंद करते हैं. लेकिन नमाज़ के लिए मस्जिद नहीं पहुंचते. ये इमाम हुसैन थे, जब 10 मोहर्रम की सुबह हुई. और कर्बला में अज़ान दी गई तो इमाम हुसैन ने नमाज़ पढ़ाई. यज़ीद की तरफ से तीरों की बारिश होने लगी. उनके साथी ढाल बनकर सामने खड़े हो गए. और सारे तीरों को अपने जिस्म पर रोक लिया, मगर हुसैन ने नमाज़ कंप्लीट की.

इसके बाद दिन छिपने से पहले तक हुसैन की तरफ से 72 शहीद हो गए. इन 72 में हुसैन के अलावा उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शामिल थे. इनके अलावा शहीद होने वालों में उनके दोस्त और रिश्तेदार भी शामिल रहे. हुसैन का मकसद था, खुद मिट जाएं लेकिन वो इस्लाम जिंदा रहे जिसको उनके नाना मोहम्मद साहब लेकर आए.

अली असगर की शहादत को बड़े ही दर्दनाक तरीके से बताया जाता है. जब हुसैन की फैमिली पर खाना पानी बंद कर दिया गया. और यजीद ने दरिया पर फ़ौज का पहरा बैठा दिया, तो हुसैन के खेमों (जो कर्बला के जंगल में ठहरने के लिए टेंट लगाए गए थे) से प्यास, हाय प्यास…! की आवाजें गूंजती थीं. इसी प्यास की वजह से हुसैन के छह महीने का बेटा अली असगर बेहोश हो गया. क्योंकि उनकी मां का दूध भी खुश्क हो चुका था. हुसैन ने अली असगर को अपनी गोद में लिया और मैदान में उस तरफ गए, जहां यज़ीदी फ़ौज का दरिया पर पहरा था.


हुसैन ने फ़ौज से मुखातिब होकर कहा कि अगर तुम्हारी नजर में हुसैन गुनाहगार है तो इस मासूम ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. इसको अगर दो बूंद पानी मिल जाए तो शायद इसकी जान बच जाए. उनकी इस फरियाद का फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ. बल्कि यजीद तो किसी भी हालत में हुसैन को अपने अधीन करना चाहता था. यजीद ने हुर्मला नाम के शख्स को हुक्म दिया कि देखता क्या है? हुसैन के बच्चे को ख़त्म कर दे. हुर्मला ने कमान को संभाला. तीन धार का तीर कमान से चला और हुसैन की गोद में अली असगर की गर्दन पर लगा. छह महीने के बच्चे का वजूद ही क्या होता है. तीर गर्दन से पार होकर हुसैन के बाजू में लगा. बच्चा बाप की गोद में दम तोड़ गया.

71 शहीद हो जाने के बाद यजीद ने शिम्र नाम के शख्स से हुसैन की गर्दन को भी कटवा दिया. बताया जाता है कि जिस खंजर से इमाम हुसैन के सिर को जिस्म से जुदा किया, वो खंजर कुंद धार का था. और ये सब उनकी बहन ज़ैनब के सामने हुआ. जब शिम्र ने उनकी गर्दन पर खंजर चलाया तो हुसैन का सिर सजदे में बताया जाता है, यानी नमाज़ की हालत में.

मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने लिखा है,

क़त्ले हुसैन असल में मरगे यज़ीद है
इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद

मुसलमान मानते हैं कि हुसैन ने हर ज़ुल्म पर सब्र करके ज़माने को दिखाया कि किस तरह ज़ुल्म को हराया जाता है. हुसैन की मौत के बाद अली की बेटी ज़ैनब ने ही बाकी बचे लोगों को संभाला था, क्योंकि मर्दों में जो हुसैन के बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे थे. वो बेहद बीमार थे. यजीद ने सभी को अपना कैदी बनाकर जेल में डलवा दिया था. मुस्लिम मानते हैं कि यज़ीद ने अपनी सत्ता को कायम करने के लिए हुसैन पर ज़ुल्म किए. इन्हीं की याद में शिया मुस्लिम मोहर्रम में मातम करते हैं और अश्क बहाते हैं. हुसैन ने कहा था, ‘ज़िल्लत की जिंदगी से इज्ज़त की मौत बेहतर है.’

Wednesday, August 11, 2021

आयतुल कुर्सी


اللَّهُ لاَ إِلَهَ إِلاَّ هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ لاَ تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلاَ نَوْمٌ لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ مَنْ ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلاَّ بِإِذْنِهِ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَلاَ يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِنْ عِلْمِهِ إِلاَّ بِمَا شَاءَ وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَاواتِ وَالأَرْضَ وَلاَ يَئُودُهُ حِفْظُهُمَا وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ

हदीसों से यह बात पूरी तरह साबित है की नबी सल्ल० ने फरमाया है कि जो आदमी हर नमाज़ के बाद आयतुल कुर्सी शरीफ पढ़ा करे तो वह जन्नत में जायेगा और रात पढने वाले के पास शैतान कभी न आए और वह आदमी दुनिया की बलाओं से बचा रहे | अगर जुमे के दिन असर की नमाज़ के बाद आयतुल कुर्सी किसी भी अलग जगह पर पढ़े तो सारी हाजते पुरी हो जाए । आयतुल कुर्सी का पढ़ना अपना मामूल बना ले तो हमेशा राहत व कामयाबी से गुजरे । आयतुल कुर्सी यह है ‌‌‌‌‌‌--

अल्ला हु ला इलाहा इल्लाहुवल हय्युल कय्यूम ला ताखुजुहू सिन – तुव्वला नवम0 लहू माफिस्समावाति व मा फिल अर्जी0 मन जल्ल्जी यश्फऊ इन्दहू इल्ला बिइजनिही0 या अलमु मा बयना अयदी हिम वमा खल फहुम वला युहीतूना बिशयइन मिन अिलमिहि इल्ला बिमा शा आ वसिआ कुर सिय्यु हुस्समावाति वल अर्जा वला यऊदुहू हिफ्जुहुमा व हुवल अलीयुल ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌- अजीम0

तर्जुमा : अल्लाह ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌के सिवा कोइ इबादत के कोई योग्य नही वह जिन्दा है सम्भालने वाला न उसे ऊंघ आती है न नींद । जो कुछ जमीन और आसमान के बीच है कौन है जो उसके पास सिफारिश कर सके उसकी इजाजत के बिना । वह जानता है हाजिर व गायब हालात और वह मौजूदात उसकी मालूमात में से किसी चीज को भी अपने इल्म मे नही ला सकते मगर जितना इल्म वह चाहे उसकी कुर्सी ने सब आसमानो और जमीन को अपने अन्दर ले रखा है और उसे इन दोनो की हिफाजत कुछ मुश्किल नही है वह बुलन्द दर्जे वाला है ।