कहानी उस शख्सियत की, जिसके लिए मुसलमान मानते हैं कि उसने अपना सिर कटाकर इस्लाम को बचा लिया. इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने दीन-ए-इस्लाम को बचाने के लिए एक से बढ़कर एक कुर्बानी दी. इनमें उनके छह माह के बेटे की शहादत भी शामिल हैं और 18 साल के बेटे की भी. नाम है हुसैन (अ.). हां ये वही हुसैन हैं, जिनके लिए मोहम्मद साहब ने कहा था कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से. लेकिन फिर भी यजीद नाम के शख्स ने उनको क़त्ल करा दिया. कहा जाता है कि यज़ीद चाहता था कि हर बात उसकी मानी जाए.
सुन्नी मुसलमान के चौथे खलीफा और शिया मुस्लिम के पहले इमाम हज़रत अली के दूसरे बेटे हैं हुसैन. पहले बेटे का नाम हसन है. पैगंबर मोहम्मद साहब की बेटी फातिमा, हुसैन की मां हैं. यानी पैगंबर मोहम्मद साहब हुसैन के नाना हैं. हुसैन को शिया मुस्लिम अपना तीसरा इमाम मानते हैं. पहले इमाम हजरत अली और दूसरे हसन. इनके बाद हुसैन.
इमाम हुसैन का जन्म इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 3 शाबान, सन 4 हिजरी (यानी 8 जनवरी सन 626) को सऊदी अरब के शहर मदीना में हुआ. शाबान इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी में आठवां महीना होता है जो रमज़ान के महीने से पहले आता है. मुसलमान इसी तारीख के मुताबिक उनका बर्थडे मनाते हैं.
पैगंबर मोहम्मद साहब ने अल्लाह का पहचनवाया कि वो एक है. और वही इबादत के काबिल है. उन्होंने इस्लाम फैलाना शुरू किया. तब लगभग अरब के सभी कबीलों ने मोहम्मद साहब की बात को मानकर इस्लाम धर्म को कबूल कर लिया था. मोहम्मद साहब के साथ जुड़े कबीलों की ताकत देखकर उस वक़्त उनके दुश्मन भी उनसे आ मिले. लेकिन उनसे दुश्मनी दिल में पाले रहे.
और ये दुश्मनी मोहम्मद साहब के दुनिया से चले जाने के बाद सामने आने लगी. पहला हमला उनकी बेटी फातिमा ज़हरा पर हुआ, जब उनके घर पर हमला किया गया तो घर का दरवाज़ा टूटकर फातिमा ज़हरा पर गिरा और उसके ज़ख्म ऐसे हुए कि 28 अगस्त सन 632 में वो भी इस दुनिया से रुखसत हो गईं. उस वक़्त हुसैन करीब 6-7 साल के थे.
इनके बाद पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद और फातिमा के शौहर अली को भी दुश्मनों ने क़त्ल कर दिया. रमजान का महीना था. 19वां रोज़ा था. मस्जिद में इब्ने मुल्ज़िम नाम के शख्स ने तलवार से उस वक़्त अली पर हमला किया, जब वो नमाज़ पढ़ा रहे थे. वो तलवार ज़हर में डूबी हुई बताई जाती है, जिससे ऐसा ज़ख्म हुआ कि फिर उनका इलाज नहीं हो सका और 21वें रोज़े को वो भी दुनिया से सिधार गए. शिया मुस्लिम के मुताबिक अली के बाद उनके बड़े बेटे हसन को भी उसी दुश्मनी में जो मोहम्मद साहब के दौर से थी. मार दिया गया. कैद करके रखे गए हसन को ज़हर देकर शहीद किया गया था.
इन सबके दुनिया से चले जाने के बाद दुश्मन हुसैन पर दबाव बनाने लगा कि वह उस वक़्त के जबरन खलीफा बने यज़ीद (जो खुद को मुसलमान कहता था, अल्लाह के वजूद से इंकार करता था.) का हर हुक्म मानें. यज़ीद दबाव बनाने लगा कि हुसैन उसकी बैअत (अधीनता) लें. लेकिन हुसैन अपने बड़े भाई के दुनिया से चले जाने के बाद इमाम थे. यज़ीद चाहता था कि हुसैन अगर उसके साथ आ गए तो पूरा इस्लाम उसकी मुट्ठी में आ जाएगा. और फिर वो जो चाहे वो कर सकेगा. हुसैन ने उसकी अधीनता स्वीकारने से इंकार कर दिया.
किताबों में मिलता है कि 4 मई 680 ई. में इमाम हुसैन ने अपना घर मदीना छोड़ दिया मक्का जाने के लिए. वहां वो हज करना चाहते थे. तब उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में उनको क़त्ल कर सकते हैं. हुसैन नहीं चाहते थे कि काबा जैसी पवित्र जगह पर खून बहे. वो वहां से चले गए. दूसरी वजह ये भी थी कि दुश्मन उनको चुपके से क़त्ल करने का इरादा किये हुए था कि किसी को पता न चले.
मुस्लिम इतिहासकारों के मुताबिक हुसैन चाहते थे कि अगर उनको कत्ल किया जाए तो ज़माना देखे और खुद तय करे कि कौन सही और कौन गलत. वो एक ऐसे जंगल में पहुंचे, जिसका नाम कर्बला था. कर्बला आज इराक़ का एक प्रमुख शहर है. जो इराक़ की राजधानी बगदाद से 120 किलोमीटर दूर है. कर्बला शिया मुस्लिम के लिए मक्का और मदीना के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है. क्योंकि ये वो जगह है जहां इमाम हुसैन की कब्र है. दुनियाभर से शिया मुस्लिम ही नहीं बाकी मुसलमान भी इस जगह जाते हैं.
बताने को बहुत कुछ है. लेकिन ये मोटा माटी रेखाचित्र इसलिए खींचा ताकि उस बारे में बताया जा सके कि आखिर कर्बला में क्या हुआ था जिसके लिए मुस्लिमों का एक धड़ा (शिया) पूरे सवा दो महीने शोक मनाता है, अपनी हर खुशी का त्याग कर देता है. मातम (सीना पीटना) करता हैं. और हुसैन पर हुए ज़ुल्म को याद करके अश्क बहाता है.
क्या हुआ था कर्बला में?
मुसलमानों के मुताबिक हुसैन कर्बला अपना एक छोटा सा लश्कर लेकर पहुंचे थे, उनके काफिले में औरतें भी थीं. बच्चे भी थे. बूढ़े भी थे. इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 2 मोहर्रम को कर्बला पहुंचे थे. 7 मोहर्रम को उनके लिए यजीद ने पानी बंद कर दिया था. और वो हर हाल में उनसे अपनी स्वाधीनता स्वीकार कराना चाहता था. हुसैन किसी भी तरह उसकी बात मानने को राज़ी नहीं थे.
9 मोहर्रम की रात इमाम हुसैन ने रोशनी बुझा दी और अपने सभी साथियों से कहा कि मैं किसी के साथियो को अपने साथियो से ज़्यादा वफादार और बेहतर नहीं समझता. कल के दिन हमारा दुश्मनों से मुकाबला है. उधर लाखों की तादाद वाली फ़ौज है. तीर हैं. तलवार हैं और जंग के सभी हथियार हैं. उनसे मुकाबला मतलब जान का बचना बहुत ही मुश्किल है. मैं तुम सब को बखुशी इजाज़त देता हूं कि तुम यहां से चले जाओ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं होगी, अंधेरा इसलिए कर दिया है कभी तुम्हारी जाने की हिम्मत न हो. यह लोग सिर्फ मेरे खून के प्यासे हैं. यजीद की फ़ौज उसे कुछ नहीं कहेगी, जो मेरा साथ छोड़ के जाना चाहेगा. कुछ देर बाद रोशनी फिर से कर दी गई, लेकिन एक भी साथी इमाम हुसैन का साथ छोड़ के नहीं गया.
आज लाउडस्पीकर से अज़ान होती हैं. मुसलमान लाउडस्पीकर को बचाने के लिए आवाजें बुलंद करते हैं. लेकिन नमाज़ के लिए मस्जिद नहीं पहुंचते. ये इमाम हुसैन थे, जब 10 मोहर्रम की सुबह हुई. और कर्बला में अज़ान दी गई तो इमाम हुसैन ने नमाज़ पढ़ाई. यज़ीद की तरफ से तीरों की बारिश होने लगी. उनके साथी ढाल बनकर सामने खड़े हो गए. और सारे तीरों को अपने जिस्म पर रोक लिया, मगर हुसैन ने नमाज़ कंप्लीट की.
इसके बाद दिन छिपने से पहले तक हुसैन की तरफ से 72 शहीद हो गए. इन 72 में हुसैन के अलावा उनके छह माह के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शामिल थे. इनके अलावा शहीद होने वालों में उनके दोस्त और रिश्तेदार भी शामिल रहे. हुसैन का मकसद था, खुद मिट जाएं लेकिन वो इस्लाम जिंदा रहे जिसको उनके नाना मोहम्मद साहब लेकर आए.
अली असगर की शहादत को बड़े ही दर्दनाक तरीके से बताया जाता है. जब हुसैन की फैमिली पर खाना पानी बंद कर दिया गया. और यजीद ने दरिया पर फ़ौज का पहरा बैठा दिया, तो हुसैन के खेमों (जो कर्बला के जंगल में ठहरने के लिए टेंट लगाए गए थे) से प्यास, हाय प्यास…! की आवाजें गूंजती थीं. इसी प्यास की वजह से हुसैन के छह महीने का बेटा अली असगर बेहोश हो गया. क्योंकि उनकी मां का दूध भी खुश्क हो चुका था. हुसैन ने अली असगर को अपनी गोद में लिया और मैदान में उस तरफ गए, जहां यज़ीदी फ़ौज का दरिया पर पहरा था.
हुसैन ने फ़ौज से मुखातिब होकर कहा कि अगर तुम्हारी नजर में हुसैन गुनाहगार है तो इस मासूम ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है. इसको अगर दो बूंद पानी मिल जाए तो शायद इसकी जान बच जाए. उनकी इस फरियाद का फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ. बल्कि यजीद तो किसी भी हालत में हुसैन को अपने अधीन करना चाहता था. यजीद ने हुर्मला नाम के शख्स को हुक्म दिया कि देखता क्या है? हुसैन के बच्चे को ख़त्म कर दे. हुर्मला ने कमान को संभाला. तीन धार का तीर कमान से चला और हुसैन की गोद में अली असगर की गर्दन पर लगा. छह महीने के बच्चे का वजूद ही क्या होता है. तीर गर्दन से पार होकर हुसैन के बाजू में लगा. बच्चा बाप की गोद में दम तोड़ गया.
71 शहीद हो जाने के बाद यजीद ने शिम्र नाम के शख्स से हुसैन की गर्दन को भी कटवा दिया. बताया जाता है कि जिस खंजर से इमाम हुसैन के सिर को जिस्म से जुदा किया, वो खंजर कुंद धार का था. और ये सब उनकी बहन ज़ैनब के सामने हुआ. जब शिम्र ने उनकी गर्दन पर खंजर चलाया तो हुसैन का सिर सजदे में बताया जाता है, यानी नमाज़ की हालत में.
मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने लिखा है,
क़त्ले हुसैन असल में मरगे यज़ीद है
इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बादमुसलमान मानते हैं कि हुसैन ने हर ज़ुल्म पर सब्र करके ज़माने को दिखाया कि किस तरह ज़ुल्म को हराया जाता है. हुसैन की मौत के बाद अली की बेटी ज़ैनब ने ही बाकी बचे लोगों को संभाला था, क्योंकि मर्दों में जो हुसैन के बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे थे. वो बेहद बीमार थे. यजीद ने सभी को अपना कैदी बनाकर जेल में डलवा दिया था. मुस्लिम मानते हैं कि यज़ीद ने अपनी सत्ता को कायम करने के लिए हुसैन पर ज़ुल्म किए. इन्हीं की याद में शिया मुस्लिम मोहर्रम में मातम करते हैं और अश्क बहाते हैं. हुसैन ने कहा था, ‘ज़िल्लत की जिंदगी से इज्ज़त की मौत बेहतर है.’
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