Tuesday, October 19, 2021

रात को सोते समय इस्तिगफार!

 रात को सोते समय इस्तिगफार!


हुज़ूर ﷺ ने फरमाया:


"जो शख्स बिस्तर पर जाते वक्त ये कलिमात.... 


"अस्तगफिरूल्लाह-ल्लज़ी ला इलाह इल्ला हुवल हय्यूल क़य्युमु व अतुबु इलैहि"


أستغفرُ اللهَ الَّذي لا إلهَ إلَّا هو الحيُّ القيُّومُ وأتوبُ إليه


तीन बार पढ़े तो अल्लाह तआला उसके गुनाहों को बख्श देते हैं अगरचे वह समुंदर के झाग के बराबर हो, अगरचे दरख्तों के पत्तों के बराबर हो, अगरचे तह दर तह जमे हुए रेत के ज़र्रों के बराबर हो, अगरचे दुनिया के दिनों की तादाद के बराबर हो।

(तिर्मिज़ी :2/177: 3397)


सबको इसकी तलक़ीन करे

Tuesday, October 5, 2021

मुसलमानों के लिए गैर मुस्लिम की सोच

 पास से गुज़रती टैक्सी को उसने रोका,


जी मैडम !!!


टैक्सी वाला एक मौलवी टाइप शख्स था, लड़की के दिल ने कहा कह दे:

      " जाइए साहब !"

लेकिन ऑफिस सुनसान जगह पर होने की वज़ह से कम ही टैक्सी वाले इधर से गुज़रते और ऊपर से गर्मी ने बुरा हाल किया हुआ था और कोई रास्ता ना था,


सिविल लाइन जाना है, लड़की बोली,


ड्राइवर:

      " जी बैठिए!"


कितने पैसे ??, 

ड्राइवर :

     " 200 दे देना "


लड़की के दिल में खयाल आया उस दिन तो 300 रुपए देकर गई थी,


शक्ल और लिबास तो ऐसा लग रहा है कि जैसे मौलवी है !! सर तो कहते हैं कि:

     " मौलवी बहुत लालची होते हैं, अरे सर ये भी तो कहते हैं हवस के मारे होते हैं, भरोसे के काबिल नहीं ये मौलवी"


ये सोच कर वो डर गई लेकिन तेज़ धूप उसे ज़्यादा नहीं सोचने दे रही थी,


ड्राइवर:

     " मैडम ! चलें बैठें 180 दे दीजिएगा"


लड़की बोली:

     " जी सही लेकिन सामने मेरी फ़ाइल का कार्टन है भारी है उठाया नहीं जा रहा,आप......."


जी मैं रख देता हूं आप बैठिए, ड्राइवर बोला,


गाड़ी चलते ही ड्राइवर ने इजाज़त चाही:

      " दरअसल मैं बयान सुन रहा था, आपको बुरा ना लगे तो चला दूं ? "


जी आप सुन लें, लड़की बोली,


ड्राइवर ने प्लयेर ऑन किया , उन्वान था " पर्दा"


ना चाहते हुए भी उसे सुनना पड़ रहा था, लिबरल और नास्तिकों की महफ़िल और दोस्ती में रह कर उसे सिर्फ इस्लाम से नफ़रत ही दिलाई गई थी, कि


" मौलवी एक खूंखार भेड़िया का रूप दिखाया गया था जिसका मकसद, माल, हवस, लालच, औरत के जिस्म के सिवा कुछ ना था, मजहब के नाम पर पैसा खाना उसका पेशा था "


बयान में मौलवी साहब ज़ोरदार आवाज़ में गरजे ,


" पर्दा अल्लाह का हुक्म है एक औरत के जिस्म का मुहाफिज है, उसके चेहरे से लेकर जिस्म के हिस्से हाथ पैर तक को ढक कर वह उसे हज़ारों की भीड़ में भी महफूज़ होने का यकीन दिलाता है, पर्दा औरत को शैतानी नज़रों से बचाता है, देखने वाले आंखे मोड़ लेते हैं कि कोई शरीफ लड़की है"


रब का क़ुरआन कहता है,


یٰۤاَیُّہَا النَّبِیُّ قُلۡ لِّاَزۡوَاجِکَ وَ بَنٰتِکَ وَ نِسَآءِ الۡمُؤۡمِنِیۡنَ یُدۡنِیۡنَ عَلَیۡہِنَّ مِنۡ جَلَابِیۡبِہِنَّ ؕ ذٰلِکَ اَدۡنٰۤی اَنۡ یُّعۡرَفۡنَ فَلَا یُؤۡذَیۡنَ ؕ وَ کَانَ اللّٰہُ غَفُوۡرًا رَّحِیۡمًا


" ऐ नबी ! अपनी बीवियों से और अपनी साहबज़ादियों से और मुसलमानों की औरतों से कह दो कि वह अपने ऊपर अपनी चादरें लटका लिया करें, इससे बहुत जल्द उनकी शिनाख्त हो जाया करेगी फिर ना सताई जाएंगी और अल्लाह तआला बख्शने वाला और महरबान है "


पर्दा औरत की इफ्फत है सलामती का ज़ामिन है उसकी पाकदामिनी की ज़ाहिरी अलामत है पर्दे मे ही उसकी इज़्ज़त है,


लेकिन बेपर्दा की मिसाल उस खुले गोस्त की सी है जिसपर हर एक मक्खी बैठ कर अपना गंध निकालती है, हर एक उसे खाने की निगाह से घूरता है,हर आंख उसे खाने लुटने की नज़र से देखती है,"


उसे ऐसा लग रहा था के जैसे सब अल्फ़ाज़ उसी पर हों उसके ऑफिस से आने जाने पर रास्ते में खड़े हर लफंगे की नज़र उस पर होती थी,


उसे ऐसा लग रहा था उसकी इस मुश्किल का वाहिद हल यही है, लेकिन पर्दा !! और वह करे जिसके नज़दीक पर्दा ज़ालिम था , दक्यानूसी थी,


इन्हीं सोचों में उसकी बताई गली में टैक्सी पहुंच चुकी थी,


टैक्सी से उतरते हुए वह कह रही थी ," सामान प्लीज़ बाहर रख दें" और कॉल की, " ममा सनी को भेजिए कुछ फ़ाइल है वज़न ज़्यादा है ऊपर लेकर जानी है,"


मां ने कहा सनी घर पर नहीं है,


ड्राइवर बोला ," मैडम ! चलें मैं छोड़ देता हूं,"उसके ज़ेहन मे पहली ही सोच आईं, मुमकिन है पैसों की लालच में ऐसा कर रहा हो, चलो कुछ मांगता है तो दे दूंगी,"


जी बेहतर ! ड्राइवर एक फ्लोर चढ़ कर उसके कहने पर एक फ्लैट के सामने रुका, बस यहां रख दें, लड़की बोली,


और साथ ही 300 रुपए निकाल कर दिए ,


ड्राइवर ," ये 300 किस लिए ?"


लड़की बोली," दरअसल कुछ पहले मैं आईं थी तो 300 ही लेते हैं और आपने सामान भी तो लाया , अगर उसके आप अलग से लेना चाहते हैं तो बताएं "


ड्राइवर बोला ,' नहीं बहन ,आप अपने ये पैसे रखिए जो बात हुई थी मैं उससे ज़्यादा नहीं ले सकता , बाक़ी रही सामान की बात तो हमारा दीन हमें दूसरों लोगों से हमदर्दी का दर्स देता है इसलिए मैं ये सामान लाया हूं,


जाते हुए लड़की के मुंह से निकल गया," क्या आप मौलवी हैं ??"


वह मुस्कुराया और कहने लगा," मुमकिन है मौलवी के बारे में आपको गलत गाइड किया गया है, मैं मौलवी,आलिम, हाफ़िज़ तो नहीं, लेकिन इनसे मुहब्बत करने वाला हूं

Monday, October 4, 2021

सूरतुल फ़ातिहा हर बीमारी के लिए दवा है

 

क़ुरआन शरीफ हिंदी में – सूरह फातिहा तर्जुमा और तफ्सील के साथ- QURAN IN HINDI SURAH FATIHA

सूरह फातिहा यह सुरह मक्का में उतरी ! सूरह फातिहा में सात ( 7 ) आयतें और एक ( 1 Ruqu ) रुकु  है

SURAH AL FATIHA 

  • بِسْمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحْمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
  • ٱلْحَمْدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلْعَٰلَمِينَ
  • ٱلرَّحْمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
  • مَٰلِكِ يَوْمِ ٱلدِّينِ
  • إِيَّاكَ نَعْبُدُ وَإِيَّاكَ نَسْتَعِينُ
  • ٱهْدِنَا ٱلصِّرَٰطَ ٱلْمُسْتَقِيمَ
  • صِرَٰطَ ٱلَّذِينَ أَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ غَيْرِ ٱلْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلَا ٱلضَّآلِّينَ

सूरतुल फ़ातिहा ( Al- Fatiha ) हिंदी मेँ

अऊज़ो बिल्लाहे मिनश शैतानिर रजीम*बिस्मिल्ला हिर्रहमान निर्रहीम*

  • अल्हम्दु लिल्लाहे रब्बिल आलमीन*
  • अर्रहमान निर्रहीम*
  • मालिके यौमिद्दीन*
  • इय्याका नअबुदु वइय्याका नस्तईन*
  • इहदिनस सिरातल मुस्तक़ीम*
  • सिरातल लज़ीना अनअम्ता अलैहिम गै़रिल मग़दूबे अलैहिम वलद दॉल्लीन*

सूरतुल फ़ातिहा ( Al- Fatiha ) हिंदी मेँ

अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमतवाला है

  • 1. सब खू़बियाँ अल्लाह को जो मालिक है सारे जहान वालों का !
  • 2. बहुत मेहरबान रहमत वाला !
  • 3. रोज़े जज़ा (इन्साफ के दिन) का मालिक !
  • 4. हम तुझी को पूजें और तुझी से मदद चाहें !
  • 5. हमको सीधा रास्ता चला !
  • 6. रास्ता उनका जिन पर तूने एहसान किया !
  • 7. न उन का जिन पर ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ और न बहके हुओं का !

तफसीर – सूरतुल फ़ातिहा

अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला ! अल्लाह की तारीफ़ और उसके हबीब ( मेहबूब पर दरूद ) पर दरुद

सूरतुल फ़ातिहा के नाम : SURAH FATIHA KE NAAM

इस सूरह के कई नाम हैं – फा़तिहा, फा़तिहतुल किताब, उम्मुल कु़रआन, सूरतुल कन्ज़, काफि़या, वाफ़िया, शाफ़िया, शिफ़ा, सबए मसानी, नूर, रुकै़या, सूरतुल हम्द, सूरतुल दुआ़ तअलीमुल मसअला, सूरतुल मनाजात सूरतुल तफ़वीद, सूरतुल सवाल, उम्मुल किताब, फा़तिहतुल क़ुरआन, सूरतुस सलात.

इस सूरह में सात आयतें ( 7 Ayat ), सत्ताईस कलिमें ( 27 Kalime ), एक सौ चालीस अक्षर (140 letter) हैं !  कोई आयत नासिख़ या मन्सूख़ नहीं.

शानें नज़ूल यानी किन हालात में उतरी :

ये सूरत मक्कए मुकर्रमा या मदीनए मुनव्वरा या दोनों जगह उतरी ! अम्र बिन शर्जील का कहना है कि नबीये करीम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम –  (  उन पर अल्लाह तआला के दुरुद और सलाम हों ) ने हज़रत ख़दीजा रदियल्लाहो तआला अन्हा से फ़रमाया – मैं एक पुकार सुना करता हूँ जिसमें इक़रा यानी ‘पढ़ों’ कहा जाता है ! 

वरक़ा बिन नोफि़ल को खबर दी गई ! उन्होंने अर्ज़ किया – जब यह पुकार आए ! आप इत्मीनान से सुनें ! इसके बाद हज़रत जिब्रील ने खि़दमत में हाजि़र होकर अर्ज़ किया-फरमाइये:  बिस्मिल्ला हिर्रहमान निर्रहीम ! अल्हम्दु लिल्लाहे रब्बिल आलमीन– यानी अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान, रहमत वाला ! सब खूबियाँ अल्लाह को जो मालिक हे ! सारे जहान वालों का ! इससे मालूम होता है

कि उतरने के हिसाब से ये पहली सूरत है ! मगर दूसरी रिवायत से मालूम होता है ! कि पहले सूरह इक़रा उतरी ! इस सूरह में सिखाने के तौर पर बन्दों की ज़बान में कलाम किया गया है

नमाज़ में इस सूरह का पढ़ना वाजिब मतलब ज़रुरी है !  इमाम साहब और अकेले नमाज़ी के लिये तो हक़ीक़त में अपनी ज़बान से, और मुक्तदी   (मतलब इमाम साहब के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले ) के लिये इमाम साहब की ज़बान से ! 

Surah Fatiha

सही हदीस में है इमाम साहब का पढ़ना ही उसके पीछे नमाज़ पढ़ने वाले का पढ़ना है ! कुरआन शरीफ़ में इमाम साहब के पीछे पढ़ने वाले को ख़ामोश रहने और इमाम साहब जो पढ़े ! उसे सुनने का हुक्म दिया गया है.

अल्लाह तआला फ़रमाता है ! कि जब क़ुरआन पढ़ा जाए तो उसे सुनो और खा़मोश रहो ! मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है कि जब इमाम साहब क़ुरआन पढ़े, तुम ख़ामोश रहो.

और बहुत सी हदीसों में भी इसी तरह की बात कही गई है. जनाजे़ की नमाज़ में दुआ याद न हो तो दुआ की नियत से सूरह फ़ातिहा पढ़ने की इजाज़त है ! क़ुरआन पढ़ने की नियत से यह सूरह नहीं पढ़ी जा सकती ! 

सूरतुल फ़ातिहा की खूबियाँ: SURAH FATIHA KI KHUBIYA

हदीस की किताबों में इस सूरह ( surah fatiha ) की बहुत सी ख़ूबियाँ बयान की गई है.

नबीये करीम हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फरमाया तौरात व इंजील व जु़बूर में इस जैसी सूरत नहीं उतरी.( तिरमिज़ी ).-Tirmizi 

एक फ़रिश्ते ने आसमान से उतरकर नबीये करीम हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर सलाम अर्ज़ किया और दो ऐसे नूरों की ख़ूशख़बरी सुनाई जो नबीये करीम हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पहले किसी नबी को नहीं दिये गए. एक सूरह फ़ातिहा दूसरे सुरह बकरह की आख़िरी आयतें.( मुस्लिम शरीफ़ )

सूरतुल फ़ातिहा हर बीमारी के लिए दवा है. (दारमी). SURAH FATIHA SE ILAJ

सूरह फ़ातिहा सौ मर्तबा (100) पढ़ने के बाद जो दुआ मांगी जाए, अल्लाह तआला उसे क़ुबूल फ़रमाता है. (दारमी)

इस्तिआजा : क़ुरआन शरीफ़ पढ़ने से पहले “अऊज़ो बिल्लाहे मिनश शैतानिर रजीम” (अल्लाह की पनाह मांगता हूँ भगाए हुए शैतान से) पढ़ना प्यारे नबी हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का तरीक़ा यानी सुन्नत है. (ख़ाज़िन) 

लेकिन शागिर्द अगर उस्ताद से पढ़ता हो तो उसके लिए सुन्नत नहीं है. (शामी) 

नमाज़ में इमाम साहब और अकेले नमाज़ी के लिये सना मतलब सुब्हानकल्लाहुम्मा पढ़ने के बाद आहिस्ता से {धीरे से}  “अऊज़ो बिल्लाहे मिनश शैतानिर रजीम” पढ़ना सुन्नत हैं.

तस्मियह: बिस्मिल्ला हिर्रहमान निर्रहीम क़ुरआने पाक की आयत है मगर सूरह फ़ातिहा या किसी और सूरत का हिस्सा नहीं है, इसीलिये नमाज़ में ज़ोर के साथ् (ऊँची आवाज़ में ) न पढ़ी जाए !

SURAH FATIHA SE ILAJ

 बुखारी और मुस्लिम शरीफ़ में लिखा है ! कि प्यारे नबी हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हज़रत सिद्दीक़ रज़ियल्लाहु तआला अन्हु और फ़ारूक़ रज़ियल्लाहु तआला अन्हु अपनी नमाज़ “अलहम्दोलिल्लाहेरब्बिलआलमीन “यानी सूरह फ़ातिहा की पहली आयत से शुरू करते थे 

तरावीह ( रमज़ान मुबारक में रात की ख़ास (special) {विशेष}नमाज़ ) में जो ख़त्म किया जाता है ! उसमें कहीं एक बार पूरी बिस्मिल्लाह शरीफ ज़ोर से ज़रूर पढ़ी जाए ! ताकि एक आयत बाक़ी न रह जाए.

क़ुरआन शरीफ़ की हर सूरह बिस्मिल्लाह से शुरू की जाए, सिवाय सूरह बराअत या सूरह तौबह के ! 

सूरह नम्ल में सज्दे की आयत के बाद जो बिस्मिल्लाह आई है ! वह मुस्तक़िल आयत नहीं है ! बल्कि आयत का टुकड़ा है. इस आयत के साथ ज़रूर पढ़ी जाएगी ! आवाज़ से पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में आवाज़ के साथ और खा़मोशी से पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में ख़ामोशी से ! 

हर अच्छे काम की शुरूआत बिस्मिल्लाह पढ़कर करना अच्छी बात है. बुरे काम पर बिस्मिल्लाह पढ़ना मना है.

सूरतुल फ़ातिहा में क्या क्या है? SURAH FATIHA MENKYA KYA HAI 

इस सूरह फ़ातिहा में अल्लाह तआला की तारीफ़, उसकी बड़ाई, उसकी रहमत, उसका मालिक होना, उससे इबादत, अच्छाई, हिदायत, हर तरह की मदद तलब करना, 

दुआ मांगने का तरीक़ा, अच्छे लोगों की तरह रहने और बुरे लोगों से दूर रहने, दुनिया की ज़िन्दगी का ख़ातिमा, अच्छाई और बुराई के हिसाब के दिन का साफ़ साफ़ बयान है.

हम्द यानि अल्लाह की बड़ाई बयान करना….

हर काम की शुरूआत में बिस्मिल्लाह की तरह अल्लाह की बड़ाई का बयान भी ज़रूरी है. कभी अल्लाह की तारीफ़ और उसकी बड़ाई का बयान अनिवार्य या वाजिब होता है 

जैसे जुमे के ख़ुत्बे में, कभी मुस्तहब यानी अच्छा होता है ! जैसे निकाह के ख़ुत्बे में या दुआ में या किसी अहम काम में और हर खाने पीने के बाद ! कभी सुन्नते मुअक्कदा ( यानि नबी का वह तरीक़ा जिसे अपनाने की ताकीद आई हो ) जैसे छींक आने के बाद. ( तहतावी )

“रब्बिल आलमीन“ 

(  मतलब मालकि सारे जहां वालों का ) में इस बात की तरफ इशारा है कि सारी कायनात या पूरी सृष्टि ( यानी की जमीं आसमान सूरज चाँद पानी हवा हर शै पुरे ब्रहमांड की ) अल्लाह की बनाई हुई है ! ओर इसमें जो कुछ है वह सब अल्लाह ही की मोहताज  ( निर्भर ){depend} है.

और अल्लाह तआला हमेशा से है ! ओर हमेशा के लिये है ! ज़िन्दगी और मौत के जो पैमाने हमने बना रखे हैं ! अल्लाह उन सबसे पाक है, वह क़ुदरत वाला है.

”रब्बिल आलमीन” के दो शब्दों (two words) में अल्लाह से तअल्लुक़ रखने वाली हमारी जानकारी की सारी मन्ज़िलें तय हो गई.

“मालिके यौमिद्दीन” 

( मतलब इन्साफ वाले दिन का मालिक ) में यह बता दिया गया ! कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं है 

क्योंकि सब उसकी मिल्क में है और जो ममलूक यानी मिल्क में होता है उसे पूजा नहीं जा सकता. 

इसी से मालूम हुआ कि दुनिया कर्म की धरती है और इसके लिये एक आख़िरत यानी अन्त है. 

दुनिया के खत्म होने के बाद ( मतलब क़यामत या प्रलय के बाद ) एक दिन जज़ा यानी बदले या हिसाब का है ! इससे पुनर्जन्म का सिद्धान्त या नज़रिया ग़लत साबित हो गया.

“इय्याका नअबुदु” 

( मतलब की हम तेरी ही इबादत करे या हम तुझी को पूजें ) अल्लाह की ज़ात और उसकी खूबियों के बयान के बाद यह फ़रमाना इशारा करता है 

कि आदमी का अक़ीदा ( यकीन ) उसके कर्म से उपर है ! और इबादत या पूजा पाठ का क़ुबूल किया जाना अक़ीदे की अच्छाई पर है. 

इस आयत में मूर्ति पूजा यानि शिर्क का भी रद है ! कि अल्लाह तआला के सिवा इबादत किसी के लिये नहीं हो सकती.

“वइय्याका नस्तईन” 

( मतलब और तुझी से मदद चाहें ) में यह सिखाया गया कि मदद चाहना, 

चाहे किसी माध्यम या जरिये से हो ! या फिर सीधे सीधे या डायरैक्ट, हर तरह अल्लाह तआला के साथ ख़ास है ! सच्चा मदद करने वाला वही है. 

बाक़ि मदद के जो ज़रिये या माध्यम है वो सब अल्लाह ही की मदद के प्रतीक या निशान है. बन्दे को चाहिये कि अपने पैदा करने वाले पर नज़र रखे और हर चीज़ में उसी के दस्ते क़ुदरत को काम करता हुआ माने.

इससे यह समझना कि अल्लाह के नबियों और वलियों से मदद चाहना शिर्क है ! ऐसा समझना ग़लत है क्योंकि जो लोग अल्लाह के क़रीबी और ख़ास बन्दे है ! उनकी इमदाद दर अस्ल अल्लाह ही की मदद है. 

अगर इस आयत के वो मानी होते जो वहाबियों ने समझे तो क़ुरआन शरीफ़ में “अईनूनी बि क़ुव्वतिन” और “इस्तईनू बिस सब्रे वसल्लाह” क्यों आता, और हदीसों में अल्लाह वालों से मदद चाहने की तालीम क्यों दी जाती.


“इहदिनस सिरातल मुस्तक़ीम”

( मतलब हमको सीधा रास्ता चला ) इसमें अल्लाह (Allah) की ज़ात और 

उसकी ख़ूबियों की पहचान के बाद उसकी इबादत ( यानी अल्लाह की इबादत ), उसके बाद दुआ की तालीम दी गई है. 

इससे यह मालूम हुआ कि बन्दे को इबादत के बाद दुआ (Prayer)में लगा रहना चाहिये. मतलब नमाज़ के बाद दुआ करना करते रहना चाहिए। 

हदीस शरीफ़ में भी नमाज़ के बाद दुआ की तालीम ( शिक्षा ) दी गई है. 

( तिबरानी और बेहिक़ी ) 

सिराते मुस्तक़ीम

सिराते मुस्तक़ीम का मतलब इस्लाम या क़ुरआन नबीये करीम हुजू़र सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का रहन सहन या हुज़ूर या हुज़ूर के घर वाले और साथी हैं. इससे साबित होता है कि सिराते मुस्तक़ीम यानी सीधा रास्ता अहले सुन्नत का तरीक़ा है 

जो हुज़ूर नबीये करीम सल्लाहो अलैहे वसल्लम के घराने वालों, उनके साथी और सुन्नत व क़ुरआन और मुस्लिम जगत सबको मानते हैं.

“सिरातल लज़ीना अनअम्ता अलैहिम”

 ( मतलब रास्ता उनका जिन पर तुने एहसान किया ) यह पहले वाले वाक्य या जुमले की तफ़सील यानी विवरण है कि सिराते मुस्तक़ीम से मुसलमानों का तरीक़ा मुराद है. इससे बहुत सी बातों का हल निकलता है कि जिन बातों पर बुज़ुर्गों ने अमल किया वही सीधा रास्ता की तारीफ़ में आता है.


“गै़रिल मग़दूबे अलैहिम वलद दॉल्लीन “

( मतलब न उनका जिन पर ग़ज़ब हुआ और न बहके हुओ का ) इसमें हिदायत दी गई है कि सच्चाई की तलाश करने वालों को अल्लाह के दुश्मनों से दूर रहना चाहिये 

और उनके रास्ते, रस्मों और रहन-सहन के तरीक़े से परहेज़ रखना ज़रूरी है. हदीस की किताब ( Book of hadith ) तिरमिजी़ में आया है कि “मग़दूबे अलैहिम” यहूदियों और “दॉल्लीन” इसाईयों के लिये आया है.

सूरह फ़ातिहा के ख़त्म पर “आमीन” कहना सुन्नत यानी नबीये करीम का तरीक़ा है, “आमीन” के मानी है “ऐसा ही कर” या “कु़बूल फ़रमा”.

ये क़ुरआन शरीफ का शब्द नहीं है. 

सूरह फ़ातिहा नमाज़ में पढ़ी जाने या नमाज़ के अलावा, इसके आख़िर में आमीन कहना सुन्नत है.

हज़रत इमामे आज़म का मज़हब यह है कि नमाज़ में आमीन आहिस्ता धीरे से या धीमी आवाज़ में कहा जाए !

Wednesday, August 18, 2021

हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम

हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम

जब हम आस्था, वीरता और निष्ठा के उच्च शिखर की ओर देखते हैं तो हमारी दृष्टि अब्बास जैसे महान एवं अद्वितीय व्यक्ति पर पड़ती है

 

जो हज़रत अली की संतान हैं। वे उच्चता, उदारता और परिपूर्णता में इतिहास में दमकते हुए व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बहुत से लोगों ने धार्मिक आस्था, वीरता और वास्तविकता की खोज उनसे ही सीखी है। वर्तमान पीढ़ी उन प्रयासों की ऋणी है जिनके अग्रदूत अबुलफ़ज़लिल अब्बास जैसा व्यक्तित्व है।

 

उस बलिदान और साहस की घटना को घटे हुए अब शताब्दियां व्यतीत हो चुकी हैं किंतु इतिहास अब भी अब्बास इब्ने अली की विशेषताओं से सुसज्जित है। यही कारण है कि शताब्दियों का समय व्यतीत हो जाने के बावजूद वास्तविक्ता की खोज में लगी पीढ़ियों के सामने अब भी उनका व्यक्तित्व दमक रहा है।

यदि इतिहास के महापुरूषों में हज़रत अब्बास का उल्लेख हम पाते हैं तो वह इसलिए है कि उन्होंने मानव पीढ़ियों के सामने महानता का जगमगाता दीप प्रज्वलित किया और सबको मानवता तथा सम्मान का पाठ दिया। बहादुरी, रणकौशल, उपासना, ईश्वर की प्रार्थना हेतु रात्रिजागरण और ज्ञान आदि जैसी विशेषताओं में हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास का व्यक्तित्व, जाना-पहचाना है।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शहादत के पश्चात इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जो दूसरी पत्नी ग्रहण कीं उनका नाम फ़ातेमा केलाबिया था। वे सदगुणों की स्वामी थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से विशेष निष्ठा रखती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के प्रति उनका अथाह प्रेम पवित्र क़ुरआन की इस आयत के परिदृष्य में था कि पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी का बदला, उनके परिजनों के साथ मित्रता और निष्ठा है। सूरए शूरा की आयत संख्या २३ में ईश्वर कहता है, "कह दो कि अपने परिजनों से प्रेम के अतिरिक्त मैं तुमसे अपनी पैग़म्बरी का कोई बदला नहीं चाहता। (सूरए शूरा-२३) उन्होंने इमाम हसन, इमाम हुसैन, हज़रत ज़ैनब और उम्मे कुल्सूम जैसी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की निशानियों के साथ कृपालू माता की भूमिका निभाई और स्वयं को उनकी सेविका समझा। इसके मुक़ाबले में अहलेबैत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के निकट इस महान महिला को विशेष सम्मान प्राप्त था। हज़रत ज़ैनब उनके घर जाया करती थीं और उनके दुखों में वे उनकी सहभागी थीं।

हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास एक ऐसी ही वीर और कर्तव्यों को पहचानने वाली माता के पुत्र थे। चार पुत्रों की मां होने के कारण फ़ातेमा केलाबिया को "उम्मुलबनीन" अर्थात पुत्रों की मां के नाम की उपाधि दी गई थी। उम्मुलबनीन के पहले पुत्र हज़रत अब्बास का जन्म ४ शाबान वर्ष २६ हिजरी क़मरी को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। उनके जन्म ने हज़रत अली के घर को आशा के प्रकाश से जगमगा दिया था। हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम अतयंत सुन्दर और वैभवशाली थे। यही कारण है कि अपने सुन्दर व्यक्तित्व के दृष्टिगत उन्हें "क़मरे बनी हाशिम" अर्थात बनीहाशिम के चन्द्रमा की उपाधि दी गई।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसे पिता और उम्मुल बनीन जैसी माता के कारण हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास उच्चकुल के स्वामी थे और वे हज़रत अली की विचारधारा के सोते से तृप्त हुए थे। अबुल फ़ज़लिल अब्बास के आत्मीय एवं वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विशेष भूमिका रही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्र अब्बास को कृषि, शरीर एवं आत्मा को सुदृढ़ बनाने, तीर अंदाज़ी, और तलवार चलाने जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया था। यही कारण है कि हज़रत अब्बास कभी कृषि कार्य में व्यस्त रहते तो कभी लोगों के लिए इस्लामी शिक्षाओं का वर्णन करते। वे हर स्थिति में अपने पिता की भांति निर्धनों तथा वंचितों की सहायता किया करते थे। भाग्य ने भी उनके लिए निष्ठा, सच्चाई और पवित्रता की सुगंध से मिश्रित भविष्य लिखा था।

हज़रत अब्बास की विशेषताओं में से एक, शिष्टाचार का ध्यान रखना और विनम्रता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र से कहते हैं कि हे मेरे प्रिय बेटे, शिष्टाचार बुद्धि के विकास, हृदय की जागरूकता और विशेषताओं एवं मूल्यों का शुभआरंभ है। वे एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि शिष्टाचार से बढ़कर कोई भी मीरास अर्थात पारिवारिक धरोहर नहीं होती।

इस विशेषता मे हज़रत अबुलफ़ज़ल सबसे आगे और प्रमुख थे। अपने पिता की शहादत के पश्चात उन्होंने अपने भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता में अपनी पूरी क्षमता लगा दी। किसी भी काम में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से आगे नहीं बढ़े और कभी भी शिष्टाचार एवं सम्मान के मार्ग से अलग नहीं हुए।

विभिन्न चरणों में हज़रत अब्बास की वीरता ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साहस और गौरव को प्रतिबिंबित किया। किशोर अवस्था से ही हज़रत अब्बास कठिन परिस्थितियों में अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ उपस्थित रहे और उन्होंने इस्लाम की रक्षा की। करबला की त्रासदी में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेना के सेनापति थे और युद्ध में अग्रिम पंक्ति पर मौजूद रहे। आशूरा अर्थात दस मुहर्रम के दिन हज़रत अब्बास ने अपने भाइयों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज वह दिन है जब हमें स्वर्ग का चयन करना है और अपने प्राणों को अपने सरदार व इमाम पर न्योछावर करना है। मेरे भाइयों, एसा न सोचो कि हुसैन हमारे भाई हैं और हम एक पिता की संतान हैं। नहीं एसा नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हमारे पथप्रदर्शक और धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। वे हज़रत फ़ातेमा के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हैं। जिस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथी उमवी शासक यज़ीद की सेना के परिवेष्टन में आ गए तो हज़रत अब्बास सात मुहर्रम वर्ष ६१ हिजरी क़मरी को यज़ीद के सैनिकों के घेराव को तोड़ते हुए इमाम हुसैन के प्यासे साथियों के लिए फुरात से पानी लाए।

तीन दिनों के पश्चात आशूर के दिन जब इमाम हुसैन के साथियों पर यज़ीद के सैनिकों का घेरा तंग हो गया तो इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों तथा साथियों के लिए पानी लेने के उद्देश्य से हज़रत अब्बास बहुत ही साहस के साथ फुरात तक पहुंचे। इस दौरान उन्होंने उच्चस्तरीय रणकौशल का प्रदर्शन किया। हालांकि वे स्वयं भी बहुत भूखे और प्यासे थे किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्यासे बच्चों और साथियों की प्यास को याद करते हुए उन्होंने फुरात का ठंडा तथा शीतल जल पीना पसंद नहीं किया। फुरात से वापसी पर यज़ीद के कायर सैनिकों के हाथों पहले हज़रत अब्बास का एक बाज़ू काट लिया गया जिसके पश्चात उनका दूसरा बाजू भी कट गया और अंततः वे शहीद कर दिये गए।

जिस समय हज़रत अब्बास घोड़े से ज़मीन पर आए, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बहुत ही बोझिल और दुखी मन से उनकी ओर गए, उन्होंने हज़रत अब्बास के सिर को अपने दामन में रखते हुए कहा, हे मेरे भाई इस प्रकार के संपूर्ण जेहाद के लिए ईश्वर तुम्हें बहुत अच्छा बदला दे। इसी संबंध में हज़रत अब्बास की विशेषताओं को सुन्दर वाक्यों और मनमोहक भावार्थ में व्यक्त करते हुए इमाम जाफ़रे सादिक़ ने एसे वाक्य कहे हैं जो ईश्वरीय दूतों की आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में हज़रत अब्बास के बलिदान और उनकी महान आत्मा के परिचायक हैं। वे कहते हैं कि मैं गवाही देता हूं कि आपने अच्छाइयों के प्रचार व प्रसार तथा बुराइयों को रोकने के दायित्व का उत्तम ढंग से निर्वाह किया और इस मार्ग में अपने भरसक प्रयास किये। मैं गवाही देता हूं कि आपने कमज़ोरी, आलस्य, भय या शंका को मन में स्थान नहीं दिया। आपने जिस मार्ग का चयन किया वह पूरी दूरदर्शिता से किया। आपने सच्चों का साथ दिया और पैग़म्बरों का अनुसरण किया।

Monday, August 16, 2021

टीम 9 की बैठक में सीएम योगी का निर्देश, 06 से 08वीं तक की स्कूल 23 अगस्त से और 01 से 05 तक के स्कूल 01 सितंबर से खोलने के निर्देश

लखनऊ
टीम 9 की बैठक में सीएम योगी का निर्देश ।

  • यूपी में 6-8वी तक के स्कूल 23 अगस्त से और 1 से 5वी तक के स्कूल 1 सितंबर से खुलेंगे।
  • 9वीं और उससे ऊपर की पढ़ाई आज से शुरू हो गई है।
  • सीएम ने अपने निर्देश में कहा है कि रक्षाबंधन के बाद 23 अगस्त से 06वीं से 08वीं तक तथा 01 सितंबर से कक्षा 01 से 05वीं तक के विद्यालयों में पठन-पाठन प्रारंभ करने पर विचार किया जाए।






Sunday, August 15, 2021

जानिये उन 4 मुस्लिम महिलाओं के बारे में जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए संघर्ष किया

 74 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर  आइए हम इन मुस्लिम महिलाओं को याद करें जिन्होंने भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपनी ताकत, उत्साह और दृढ़ संकल्प साबित किया। इन महिलाओं ने समाज में उन मुस्लिम महिलाओं की रूढ़िवादिता को तोड़ा  जिन्हें केवल बुरखा में लिपटा  माना जाता है और उन्हें कभी घर से बाहर नहीं निकलने दिया जाता। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष में भाग लिया और विजयी हुए।

बेगम हज़रत महल (1830-1879)

बेगम हज़रत महल 1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लखनऊ से विद्रोह का नेतृत्व करने वाली महान् क्रान्तिकारी महिला थी।

उनका असली नाम मुहम्मदी खानुम था। उनका जन्म 1820 ई• में अवध रियासत के फैज़ाबाद में हुआ था।वह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थी। अंग्रेज अवध पर अपना अधिकार करना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा अवध के नवाब वाजिद अली शाह को नज़रबंद करके कलकत्ता भेज दिया। तब बेगम हज़रत महल ने अवध रियासत की बागडोर अपने हाथों में लेली। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कद्र को राजगद्दी पर बैठाकर अंग्रेज़ी सेना का स्वयं मुकाबला किया।

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उनमें संगठन की अभूतपूर्व क्षमता थी और इसी कारण अवध के ज़मीदार, किसान, सैनिकों ने उनके नेतृत्व में अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। आलमबाग की लड़ाई में उन्होंने व उनके साथियों ने अंग्रेज़ी सेना का डटकर मुकाबला किया परन्तु पराजय के बाद उन्हें भागकर नेपाल में शरण लेनी पड़ी।

नेपाल के प्रधानमंत्री महाराजा जंग बहादुर राणा द्वारा उन्हें शरण प्रदान की गई। उसके बाद बेगम हज़रत महल ने अपना पूरा जीवन नेपाल में ही व्यतीत किया और वहीं पर 7 अप्रैल 1879 ई• में उनका निधन हो गया और वहीं काठमांडू की जामा मस्जिद के मैदान में दफनाया गया।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनके महत्वपूर्ण योगदान को सम्मानित करते हुए 15 अगस्त 1962 में लखनऊ हज़रतगंज के विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर उनके नाम पर रखा गया। 10 मार्च 1984 को भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया गया।

अबदी बानो बेगम (1852-1924)

बी अम्मा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक साहसी, राष्ट्रवादी महिला व स्वतंत्रता सेनानी थी। उनका असली नाम ” आबदी बानो बेगम ” था। बी अम्मा का जन्म 1850 ई• में उत्तर प्रदेश राज्य के ज़िला रामपुर में हुआ था। उनका विवाह रामपुर के अब्दुल अली खान से हुआ। लेकिन वह कम उम्र में विधवा हो गई। फिर भी उन्होंने कड़ी मेहनत करके अपने बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षित किया।

उनके दो लड़के मौलाना शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली जौहर थे। जो अली ब्रादर्स के नाम से मशहूर हुए।बानो बेगम ने स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

1917 में जब उनके दोनों बेटों को जेल में डाला गया तो श्रीमती एनी बेसेंट के साथ आन्दोलन पर बैठ गई और अपनी तरफ से एक बड़ी मुक्ति सभा को संबोधित किया और अंग्रेजों के खिलाफ अभूतपूर्व भाषण दिया।

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1919 में उनके दोनों बेटों ने खिलाफत आंदोलन का प्रमुख रूप से नेतृत्व किया और उन्होंने भी इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 1920 में गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया। उन्होंने ख़िलाफत आन्दोलन और असहयोग आंदोलन में धन उगाहने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

बी अम्मा अक्सर बसन्ती देवी, सरला देवी, एनीबेसेन्ट, सरोजनी नायडू जैसी महिलाओं के साथ महिला सभाओ को संबोधित करती थी। वह हिन्दू मुस्लिम एकता की प्रतीक थी। मगर अफसोस बी अम्मा स्वतंत्र भारत न देख सकी और 13 नवंबर 1924 को उनका निधन हो गया

बीबी अमातस सलाम (1907-1985)
बीबी अमातस सलाम, जो दृढ़ता से मानती थी कि केवल गांधीवादी तरीकों के जरिए,अंग्रेजों की गुलामी से आजादी हासिल की जा सकती है, वह 1907 में राजपूताना परिवार में पंजाब के पटियाला में पैदा हुई थी। उनके पिता कर्नल अब्दुल हमीद और उनकी माँ अमातुर रहमान थीं। अमातुस सलाम छह बड़े भाइयों की छोटी बहन थी। उसका स्वास्थ्य बचपन से ही बहुत नाजुक था। वह अपने सबसे बड़े भाई, स्वतंत्रता सेनानी मोहम्मद अब्दुर राशिद खान से प्रेरित थी। अपने भाई के नक्शेकदम पर चलते हुए, उसने देश की जनता की सेवा करने का फैसला किया। अमातुस सलाम ने खादी आंदोलन में भाग लिया और अपने भाई के साथ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बैठकों में भाग लिया। वह महात्मा गांधी और सेवाग्राम आश्रम के गैर हिंसा सिद्धांत के प्रति आकर्षित थी। उन्होंने सेवाग्राम आश्रम में शामिल होने का फैसला किया, और 1931 में वहां गईं। उन्होंने आश्रम में प्रवेश किया और आश्रम के सख्त सिद्धांतों का पालन किया। अपनी निस्वार्थ सेवा के साथ वह गांधी दंपति के बहुत करीब हो गईं। गाँधी अमातुस सलाम को अपनी प्यारी बेटी मानते थे। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान, वह गांधी की अनुमति के साथ अपनी बीमारी के बावजूद 1932 में अन्य महिलाओं के साथ जेल गईं।

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जेल से रिहा होने के बाद, वह सेवाग्राम पहुंची और गांधी की निजी सहायक के रूप में दायित्व को संभाल लिया। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सामंजस्य, हरिजनों और महिलाओं का कल्याण उनकी जीवन महत्वाकांक्षाएं थीं। जब सांप्रदायिक दंगे भड़क गए, तो उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमांत  सिंध और नौखली क्षेत्रों का दौरा गांधी के राजदूत के रूप में किया।

उन क्षेत्रों की स्थिति को सामान्य करने के लिए 20 दिनों तक सत्याग्रह किया। आजादी के बाद, उन्होंने खुद को सार्वजनिक सेवा में बदल दिया। उन्होंने राष्ट्रीय एकीकरण और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए ‘हिंदुस्तान’ नामक एक उर्दू पत्रिका प्रकाशित की। 1961 में जब खान अब्दुल गफ्फार खान भारत दौरे पर आए, तो उन्होंने उनके निजी सहायक के रूप में उनके साथ यात्रा की।

हजारा बेगम (1910-2003)
हजारा बेगम जिन्होंने राष्ट्र को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और देश के मेहनतकश जनता के कल्याण के लिए काम किया, उनका जन्म 22 दिसंबर, 1910 को उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में हुआ था। उन्हें स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान के बारे में पता चला, जो अपने पिता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे, जो एक पुलिस अधिकारी थे। अपनी शादी की विफलता के बाद वह अपनी उच्च शिक्षा का के लिए लंदन चली गई, जहां वह ब्रिटिश विरोधी ताकतों से परिचित हो गई। इसने उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ देश को आजाद कराने के लिए लड़ने का फैसला किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के गुस्से का सामना करना पड़ा क्योंकि वह कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उनके कृत्यों की आलोचना कर रही थी।

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वह भारत लौट आईं और 1935 में लखनऊ के करामत हुसैन महिला कॉलेज में व्याख्याता के रूप में शामिल हुईं। उन्होंने अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के गठन में प्रसिद्ध कवि सज्जाद ज़हीर के साथ भी काम किया। उन्होंने 1935 में एक राष्ट्रवादी नेता डॉ। ज़ैनुल आबेदीन अहमद से शादी की और उसी वर्ष दोनों ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सदस्यता ले ली। चूंकि ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए पुलिस उनके पीछे थी इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और खुद को पूरी तरह से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में समर्पित कर दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गतिविधियों में भाग लेते हुए, हजारा बेगम ने पुलिस की जानकारी के बिना कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी अभियान चलाया। उन्होंने उन दिनों चुनाव प्रचार में सक्रिय रूप से भाग लिया, और इसके परिणामस्वरूप कई कांग्रेसी नेता निर्वाचित हुए। वह 1937 में आंध्र प्रदेश के कोथापट्टनम में एक गुप्त राजनीतिक कार्यशाला में शामिल हुईं।

वह मेहनतकश लोगों और महिलाओं के हलकों में ‘हज़ारा आपा’ के रूप में बहुत लोकप्रिय हुईं। सोवियत संघ ने 1960 में लेनिन की जन्म शताब्दी की पूर्व संध्या पर लोगों के लिए उनके काम को मान्यता देने के लिए उन्हें ‘सुप्रीम सोवियत जुबली अवार्ड’ से सम्मानित किया। हजारा बेगम, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश की सेवा में लगाया, ने 20 जनवरी, 2003 को अंतिम सांस ली।

Saturday, August 14, 2021

हुसैनी ब्राह्मण

शिया मौलाना जलाल हैदर नकवी बताते हैं कि कर्बला की जंग यजीद के जुल्म के सितम के खिलाफ इमाम हुसैन ने लड़ी थी. इस जंग में मुसलमानों का बड़ा तबका यजीद के साथ था, जो हक पर थे वही हुसैन के साथ थे. ऐसे में इमाम हुसैन का साथ देने भारत के ब्राह्मण गए.

...वो ब्राह्मण जिन्होंने यजीद से लिया था हुसैन की शहादत का बदला!
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हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हिंदू और मुसलमान दोनों में होते हैं. मौजूदा समय में हुसैनी ब्राह्मण अरब, कश्मीर, सिंध, पाकिस्तान,  पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं. ये लोग 10 मुहर्रम यानी आज के दिन हुसैन की शहादत के गम में मातम और मजलिस करते हैं.

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यहां तक कि इस समुदाय से कई प्रसिद्ध हस्तियों का नाम भी जोड़ा जाता है. कहते हैं कि फिल्म अभिनेता और सांसद रहे स्वर्गीय सुनील दत्त हुसैनी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखते थे. उनके अलावा ऊर्दू लेखक कश्मीरी लाल जाकिर, साबिर दत्त और नंदकिशोर विक्रम हुसैनी ब्राह्मण समुदाय से जुड़े नाम हैं.

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प्रोफेसर असगर नकवी बताते हैं कि पैगंबर मोहम्मद के दौर की बात है, जब सुनील दत्त के पूर्वजों के संतान नहीं हो रही थी. उस समय वह अल्लाह के रसूल पैगंबर मोहम्मद के पास पहुंचें. दत्त परिवार ने अपनी बात रखते हुए कहा कि रसूल हमारे परिवार में औलाद नहीं हो रही है. ये सुनकर नबी ने इमाम हुसैन से कहा कि आप इनके लिए दुआ करो. उस वक्त इमाम हुसैन बच्चे थे और वे खेल रहे थे. हुसैन ने अपने हाथ उठाकर खुदा से उनके लिए दुआ की. इमाम हुसैन की दुआ के बाद दत्त परिवार में बेटे का जन्म हुआ, तभी से ये हुसैनी ब्राह्मण के नाम से पहचाने जाने लगे.

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कर्बला की जंग में इमाम हुसैन का साथ देने गए हुसैनी ब्राह्मण भी शहीद हो गए थे. ये वही हुसैनी ब्राह्मण थे, जो हुसैन की दुआ के बाद जन्मे थे.

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कहा जाता है कि कर्बला की जंग में इमाम हुसैन के साथ उनके परिवार और 72 साथियों के अलावा दत्त परिवार के 7 बेटे भी शहीद हुए थे.

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हिंदुस्तान के सभी धर्मों में हज़रत इमाम हुसैन से अकीदत और प्यार की परंपरा रही है. कर्बला की जंग ने उदारवादी मानव समाज को हर दौर में प्रभावित किया है. यही वजह है कि भारतीय समाज में शहीद मानवता हज़रत इमाम हुसैन की शहादत का शोक न केवल मुस्लिम समाज के लोग मनाते हैं, बल्कि हिंदू समाज में भी इंसानियत की उस महान शख्सियत की शहादत का शोक मनाया जाता है.

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कहा जाता है कि पैगंबर मोहम्मद के छोटे नवासे इमाम हुसैन इस्लामिक इतिहास के पहले और शायद आखिरी ऐसे बच्चे हैं, जिनके जन्म पर उनका परिवार रोया था. यहां तक  की रसूल खुद रोए थे, जब जिब्राईल अमीन ने इमाम हुसैन के जन्म पर बधाई के साथ यह बताया कि उस बच्चे को कर्बला के मैदान में तीन दिन का भूखा प्यासा रखा जाएगा. साथ ही उनके 72 साथियों के साथ उन्हें शहीद किया जाएगा और इस परिवार की औरतों और बच्चों को कैद कर लिया जाएगा.

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श्रीनगर के इमामबाड़े में हज़रत इमाम हुसैन मुंए मुबारक मौजूद हैं, जो काबुल से लाया गया है. हुसैनी ब्राह्मण उसे 100 साल पहले काबुल से लाए थे.

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असगर नकवी कहते हैं कि हुसैनी ब्राह्मण दरदना भट्टाचार्य के वंशज थे. उनमें आत्मसम्मान और बहादुरी कूट-कूट कर भरी हुई थी. कर्बला में हुसैन की शहादत की खबर सुनी तो हुसैनी ब्राह्मण 700 ई. में इराक पहुंचे और इमाम हुसैन का बदला लेकर लौटे.

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श्रीनगर के इमामबाड़े में हज़रत इमाम हुसैन मुंए मुबारक मौजूद हैं, जो काबुल से लाया गया है. हुसैनी ब्राह्मण उसे 100 साल पहले काबुल से लाए थे.

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प्रेमचंद का प्रसिद्ध नाटक 'कर्बला' सही और गलत से पर्दा उठाता है. अवध का मुहर्रम हिन्दू–मुस्लिम एकता गंगा-जमुनी तहजीब की एक खूबसूरत और पाकीजा मिसाल पेश करता है.

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सैय्यद अतहर हुसैन बताते हैं कि लखनऊ चौक में तो लगभग हर हिंदू घर में पहले ताजिया रखा जाता था. अब भी ज्यादातर पुराने हिंदू घरों में ताजिएदारी होती है और मिन्नती ताजिएदारी का रिवाज भी है.

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कहा जाता है कि सभी हुसैनी ब्राह्मण लोगों की गर्दन पर निशान होते हैं. दरअसल, उनका मानना है कि ये निशान इमाम हुसैन और ब्राह्मण की शहादत के प्रतीक हैं.